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________________ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन १७३ जयकुमार के मुनि-दीक्षा-ग्रहण तथा कठोर मुनि-धर्म के पालन का यह मर्मस्पर्शी वर्णन भी सहृदय को शान्तरस के सागर में डुबा देता है - सहसा सह सारेणापदूषणमभूषणम् । जातरूपमसो भेजे रेजे स्वगुणपूषणः॥ २८/४ ॥ सदाचारविहीनोऽपि सदाचारपरायणः । स राजापि तपस्वी सन् समक्षोऽप्यक्षरोधकः ॥ २८/५ ॥ हरेयैवेरया व्याप्तं भोगिनामधिनायकः । अहीनः सर्पवत्तावत्कञ्चुकं परिमुक्तवान् ॥२८/६ ॥ पञ्चमुष्टि स्फुरदिष्टिः प्रवृत्तोऽखिलसंयमे । उच्चखान महाभागो वृजिनान्वृजिनोपमान् ॥२८/७ ॥ कृताभिसन्धिरभ्यङ्गनीरागमहितोदयः। मुक्ताहारतया रेजे मुक्तिकान्ताकरग्रहे ॥२८/८ ॥ मारवाराभ्यतीतस्सबथो नोदलताश्रितः । निवृत्तिपथनिष्ठोऽपि वृत्तिसंख्यानवानभूत् ।।२८/११ ॥ रसाभास जब शृंगारादि रस अनुचित आलम्बन पर आश्रित होते हैं, तब वे रसाभास में परिवर्तित हो जाते हैं।' जैसे विवाहित स्त्री की परपुरुष के प्रति रति अनुचित है । वह जहाँ दर्शायी जायेगी, वहाँ शृंगार रस न रहकर शृंगार रसाभास हो जायेगा । इसी प्रकार गुरु आदि को आलम्बन बनाकर हास्य रस का प्रयोग, वीतराग को आलम्बन बना कर करुण रस का प्रयोग, गुरु अथवा माता-पिता को आलम्बन बना कर रौद्ररस का प्रयोग, अधमपात्रनिष्ठ वीररस का वर्णन तथा चाण्डालादि नीच प्रकृति के पात्रों में शमभाव का प्रदर्शन विभिन्न रसाभासों के हेतु हैं। जयोदय में केवल शृंगार रसाभास एवं भयानक रसाभास की व्यंजना हुई है। १. "तदाभासा अनौचित्यप्रवर्तिताः" - काव्यप्रकाश, ४/३६ २. साहित्यदर्पण, ३/२६३-२६५
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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