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________________ . १५२ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन (३) वागारम्भक, जैसे- आलाप, विलाप, संलाप आदि (४) बुद्ध्यारम्भक, जैसे- रीति, वृत्ति आदि । ' व्यभिचारिभाव लोक में आलम्बन एवं उद्दीपक कारणों से रत्यादि भाव के उद्बुद्ध होने पर जो ब्रीडा, चपलता, औत्सुक्य, हर्ष आदि भाव साथ में उत्पन्न होते हैं उन्हें लोक में सहकारी भाव तथा काव्य-नाट्य में व्यभिचारिभाव कहते हैं । इनका दूसरा नाम संचारी भाव भी है । काव्य - नाट्य मैं इनकी यह संज्ञा इसलिए है कि ये विभाव तथा अनुभावों द्वारा अंकुरित एवं पल्लवित सामाजिक के रत्यादि स्थायी भावों को सम्यक् रूप से पुष्ट करने का संचारण व्यापार करते हैं । भरत मुनि ने इनकी संख्या ३३ बतलाई है, जो इस प्रकार है : निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्य, दैन्य, चिन्ता, मोह, स्मृति, धृति ब्रीडा, चपलता, हर्ष, आवेग, जड़ता, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, सुप्त, विबोध, अमर्ष, अवहित्य, उग्रता, मति, व्याधि, उन्माद, मरण, त्रास और वितर्क । स्थायिभाव पूर्व में कहा गया है कि विभाव, अनुभाव और व्यभिचारिभाव रस के निमित्त 'कारण हैं, स्थायिभाव उपादान कारण हैं । स्थायीभाव मन के भीतर स्थायी रूप से रहने वाला प्रसुप्त संस्कार है, जो अनुकूल आलम्बन तथा उद्दीपन रूप उद्बोधक सामग्री को प्राप्त कर अभिव्यक्त होता है और हृदय में एक अपूर्व आनन्द का संचार कर देता है । इस स्थायिभाव की अभिव्यक्ति ही रसास्वादजनक या रस्यमान होने से रस शब्द से बोध्य होती है । व्यवहार दशा में मानव को जिस-जिस प्रकार की अनुभूति होती है उसको ध्यान में रखकर आठ प्रकार के स्थायिभाव साहित्य शास्त्र में माने गये हैं । काव्यप्रकाशकार ने उनकी गणना इस प्रकार की है : " रतिर्हासश्च शोकश्च क्रोधोत्साहो भयं तथा । जुगुप्सा विस्मयश्चेति स्थायिभावा प्रकीर्तिताः ॥”३ १. साहित्यदर्पण विमर्श, हिन्दी व्याख्या, पृ० २०१ २. “सञ्चारणं तथाभूतस्यैव तस्य सम्यक्चारणम्" - साहित्यदर्पण वृत्ति ३/१३ ३. काव्यप्रकाश, ४/३०
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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