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________________ .१५० जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन विभावा अनुभावास्तत् कथ्यन्ते व्यभिचारिणः । व्यक्तः स तैर्विभावायैः स्थायीभावो रसः स्मृतः ॥' - लोक में रति आदि स्थायी भावों को उबुद्ध करने वाले जो कारण, कार्य और सहकारीकारण होते हैं, उनका नाट्य या काव्य में वर्णन होने पर वे क्रमशः विभाव, अनुभाव और व्यभिचारिभाव कहलाते हैं । उन सब के योग से जो (सामाजिक काव्य या नाट्य का पाठक या प्रेक्षक का) स्थायीभाव व्यक्त होता है वह रस कहलाता है । रस सामग्री इस प्रकार काव्य, नाट्यगत विभावादि तथा सामाजिक का स्थायीभाव रस सामग्री है । सामाजिक का स्थायिभाव रस का उपादान कारण है, काव्य-नाट्य में वर्णित विभावादि निमित्त कारण हैं । रस के स्वरूप को समझने के लिए विभावादि के स्वरूप को समझना आवश्यक है। विभाव रसानुभूति के कारणों को विभाव कहते हैं । ये दो प्रकार के होते हैं -- (१) आलम्बन विभाव, (२) उद्दीपन विभाव । काव्यनाट्य में वर्णित नायक-नायिकादि आलम्बन विभाव कहलाते हैं, क्योंकि इन्हीं के आलम्बन से सामाजिक का स्थायीभाव अभिव्यक्त होकर रस रूप में परिणत होता है -- “आलम्बनं नायकादिस्तमालम्ब्य रसोद्गमात्" ।। इसे स्पष्ट करते हुए विश्वनाथ कविराज कहते हैं -- “लोकजीवन में जो सीता आदि, राम आदि या राम आदि, सीता आदि के रति, हास, शोक आदि भावों को उबुद्ध करने वाले कारण होते हैं, वे ही काव्य और नाट्य में निविष्ट होने पर “विभाव्यन्ते आस्वादांकुरप्रादुर्भावयोग्याः क्रियन्ते सामाजिकरत्यादिभावा एभिः इति विभावाः" (इनके द्वारा सामाजिक के रत्यादिभाव आस्वाद योग्य बनाये जाते हैं) इस निरुक्ति के अनुसार विभाव कहलाते हैं। इनमें सामाजिक के रत्यादि भावों को उबुद्ध करने की योग्यता इसलिए आ जाती है कि काव्य-नाट्य में ये जनकतनयाविरूप व्यक्तिगत विशेषताओं से शून्य होकर साधारणीकृत हो जाते हैं । अर्थात् सामान्य स्त्री-पुरुष के रूप में प्रतीत होते हैं । १. काव्यप्रकाश, ४/२७-२८ २. साहित्य दर्पण, ३/२९ ३. वही, वृति ४. वही, विमर्श हिन्दी व्याख्या
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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