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________________ १३८ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन - सुलोचना बुद्धिदेवी को सम्बोधित करते हुए कहती है - हे वाणी ! मेरा मन तो इन अनेक राजाओं में से किसी एक का उपहार होगा, शेष सभी का अनादर हो जायेगा । मैं इन सभी का सत्कार कैसे कर सकूँगी ? यह बात मेरे हृदय में कृपाण का कार्य कर रही है । यहाँ पर "हृदे अपि इयं अहृद्या कृपाणी" (यह बात मेरे हृदय में तीक्ष्ण कृपाण का कार्य कर रही है) वाक्य स्वयंवर सभा में उपस्थित राजाओं को देखकर सुलोचना के मन में उत्पन्न कष्टातिशय को व्यंजित करनेवाला प्रभावशाली बिम्ब प्रस्तुत करता है। निम्न श्लोक का उत्तरार्ध एक लोकोक्तिरूप वाक्य है, जो अर्ककीर्ति की हठग्राहिता को सहजतया घोतित करता है। ननु मनुष्यवरेण निवेदितं मयि निवेदमनर्थमवेहि तम् । कथमिवान्धकलोष्ठमपि क्रमः कनकमित्युपकल्पयितुं धमः ॥ ९/२८॥ -- मन्त्री सुमति ने मुझसे युद्ध न करने हेतु निवेदन किया था, किन्तु उनके निवेदन का मेरे ऊपर कोई असर नहीं हुआ। ठीक ही है, अन्धक पाषाण को कोई स्वर्ण का कैसे बना सकता है ? संज्ञाश्रित बिम्ब कवि ने संज्ञा का प्रतीक रूप में प्रयोग कर अमूर्त भावों के हृदयस्पर्शी बिम्ब निर्मित किये हैं : गता निशाऽथ दिशा उद्घाटिता भान्ति विपूतनयनभूते। कोऽस्तु कौशिकादिह विद्वेषी परो नरो विशदीभूतो। ८/९०॥ -- हे विशाल एवं निर्मल नयनों वाली पुत्री ! निशा बीत गयी, अब सभी दिशाएँ स्पष्ट दिखाई दे रही हैं । ऐसे प्रकाशमान समय में उल्लू के अलावा ऐसा कौन प्राणी होगा जिसे प्रसन्नता न हो। यहाँ “निशा" तथा "कौशिक" संज्ञाएँ प्रतीकात्मक हैं, जिनसे क्रमशः “विपत्ति" एवं "विवेकहीन" का अर्थ व्यंजित करने वाले सशक्त बिम्ब निर्मित होते हैं। विशेषणाश्रित बिम्ब निम्न पद्य में विशेषण के द्वारा सुन्दर बिम्ब की रचना हुई है - कमलामुखीमयमात्मरश्मिभिः श्रीपरिफुल्लहां, रसति स्मेपमिमं खलु रमणीधामनिषि स्वापारम् । ग्रहणग्रहणस्यादौ परमो भविनोरमिविश्वम्भ, भवतु कवीश्वरलोकाग्रहतो हावपरश्चारम्भः ॥ १०/११९॥ - जयकुमार ने अपने नेत्रों से अलंकारों से सुशोभित, प्रसन्नचित्त, कमलमुखी
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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