SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 189
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन मणिसगुणिसंविभालतस्त्ववधूतो १३१ नवधूलिशालतः । नयनारिरगादभावतां न निशावासरयोर्भिदोऽत्र ताः ॥ २६/४८ प्रस्तुत पद्य में कवि ने सार्ध चन्द्रमा की उपमा द्वारा नायक के मुखमण्डल की शोभा को नेत्रों का विषय बना दिया है : भालेन सार्धं लसता सदास्य मेतस्य तस्यैव समेत्य दास्यम् । सिन्धोः शिशुः पश्यतु पूर्णिमास्यं चन्द्रोऽधिगन्तुं मुहुरेव भाष्यम् ॥ १/५५ - चमकते हुए ललाट वाले राजा जयकुमार का मुख डेढ़ चन्द्रमा के समान सुन्दर था। अतः समुद्र का पुत्र चन्द्रमा उसके मुख के रूप सौन्दर्य की समानता पाने के लिए बार-बार पूर्णिमा को प्राप्त होता था फिर भी उसके समान कान्ति नहीं कर पाता था । सर्वतोभद्र स्वयंवर मण्डप की रचना के वर्णन में स्तम्भ, कलश, मुकुर, झालर, ध्वजा आदि का चित्रण कर कवि ने मण्डप का समग्र चित्र नेत्रों के समक्ष उपस्थित कर दिया है - - कलत्रं हि सुवर्णोरुस्तम्भं कामिजनाश्रयम् । मण्डपं सुतरामुच्चैस्तनकुम्भविराजितम् ||३ / ७२ मुकुरादिसमाधारं मौक्तिकादिसमन्वितम् । नवविद्रुमभूयिष्ठमुद्यानमिव मञ्जुलम् ||३ / ७५ यह मण्डप स्वर्ण के परिपुष्ट खम्भों से युक्त है, ऊपरी भाग मंगल कलशों से सुशोभित है, यह सर्वथा कामिजनों के आश्रय के योग्य है, परिणेया युवती जैसा लग रहा है । जैसे उपवन कलियों से युक्त, मोतिया आदि पुष्पी पौधों एवं नयी कोपलों से सुशोभित होता है; उसी प्रकार यह मण्डप सर्वत्र मुकुर, मोती एवं मूंगों की झालर से शोभायमान है । " रक्तनेत्र" विशेषण द्वारा उपस्थापित बिम्ब से अर्ककीर्ति की क्रोधोत्तप्त दशा का साक्षात्कार हो जाता है कल्यां समाकलय्योग्रामेनां भरतनन्दनः । रक्तनेत्रो जवादेव बभूव क्षीबतां गतः । ।७/१७ भरत चक्रवर्ती का पुत्र अर्ककीर्ति, दुर्मर्षण की उग्र वाणी रूप तेज मदिरा का पानकर शीघ्र ही मदमस्त होता हुआ लाल-लाल नेत्रों वाला बन गया । कवि ने गिरगिट के समान रंग बदलने की उपमा द्वारा स्वयंवर में उपस्थित राजकुमारों की क्षण-क्षण परिवर्तमान भाव दशा का सुन्दर द्योतन किया है :
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy