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________________ १२६ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन मुहावरे, लोकोक्ति आदि में पूरे वाक्य से बिम्ब की रचना होती है । यथा - क्व सूर्यप्रभवो वंशः क्व चाल्पविषया मतिः । तितीपुर्दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम् ॥ प्रस्तुत निदर्शना में “डोंगी से सागर पार करना चाहता हूँ" इस पूरे वाक्य से अर्थात् डोंगी और सागर संज्ञाओं तथा “पार करना' क्रिया के समन्वय से बिम्ब की रचना होती है । इसी प्रकार - लिम्पतीव तमोङ्गानि वर्षतीवाजनं नमः । असत्पुरुषसेवेव दृष्टिविफलतां गता ॥' इस उत्प्रेक्षा में "अङ्गानि लिम्पति इव" तथा "अञ्जनं वर्षति इव" इन दो वाक्यों से दो बिम्बों का सृजन हुआ है। संज्ञाश्रित बिम्ब संज्ञा से बिम्ब वहीं निर्मित होता है जहाँ वह प्रतीक रूप में प्रयुक्त होती है । जैसे "तमसो मा ज्योतिर्गमय' यहां तमस् (अन्धकार) और "ज्योति” (प्रकाश) संज्ञाएं चाक्षुष चेतना को प्रभावित करने वाले बिम्ब निर्मित कर अज्ञान और ज्ञान की सफलतापूर्वक प्रतीति कराती हैं । इसी प्रकार - या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी । यस्यां जाग्रति भूतानि स निशा पश्यतो मुनेः॥ गीता के इस श्लोक में "निशा" प्रतीकात्मक संज्ञा है जो चाक्षुष अनुभूति को उद्बुद्ध करने वाला बिम्ब निर्मित करती है, जिससे “अज्ञान" अमूर्ततत्व का मानस प्रत्यक्ष होता है। को नु हासो किमानन्दो निचं पजलिते सति ।। - अन्धकारेण ओनद्धा दीपं किं न गवे सब ॥ प्रस्तुत गाथा में “अन्धकारेण ओनद्धा" यह संज्ञा तथा क्रिया का समूह एक बिम्ब निर्मित करता है तथा प्रतीक रूप में प्रयुक्त “दीप" (ज्ञान) संज्ञा से दूसरा बिम्ब आकार ग्रहण करता है। - १. मृच्छकटिक, १/३४ २. श्रीमद्भगवद्गीता ३. धम्मपद
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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