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________________ १२४ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन इसमें अल्पमति से सूर्यवंश का वर्णन करने की दुष्करता “डोंगी से समुद्र पार करने" के मुहावरे से निर्मित विम्ब द्वारा अत्यन्त सरलतया प्रकाशित हुई है । इसी प्रकार - राजसेवा मनुष्याणामसिधाराबलेहनम् । पञ्चाननपरिष्वञ्चो व्यालीवदनचुम्बनम् ॥ यहाँ तलवार की धार चाटना, सिंह का आलिंगन करना तथा साँप का मुँह चूमना; ये तीन बिम्ब जो मुहावरों के रूप में हैं, राजसेवा की संकटास्पदता को अत्यन्त सफलता पूर्वक व्यंजित करते हैं। लोकोक्तिजन्य बिम्ब “अतिनिमर्थनाद् वहिश्चन्दनादपि जायते' इस लोकोक्ति में चन्दन के अत्यन्त घिसे जाने और उससे अग्नि उत्पन्न होने के चित्र द्वारा यह सिद्धान्त व्यंजित होता है कि यदि क्षमावान् अत्यन्त तेजस्वी व्यक्ति के साथ अत्यन्त कठोरता का व्यवहार किया जाये तो वह भी उग्र हो उठता है। "युति से हीं न श्वा धृतकनंकमालोऽपि लभते" इस लोकोक्ति द्वारा स्वर्ण की माला धारण किये हुए कुत्ते में सिंह की धुति के अभाव का जो चित्र खिंचता है, उससे यह सिद्धान्त सरलतया हृदयंगम होता है कि गुणहीन व्यक्ति धन के द्वारा गुणों से उत्पन्न होने वाली स्वाभाविक शोभा को प्राप्त नहीं कर सकता । प्रतीकाश्रित बिम्ब "तमसो मा ज्योतिर्गमय" यहाँ अन्धकार और प्रकाश के प्रतीकात्मक बिम्बों द्वारा अज्ञान और ज्ञान की, उसके सम्पूर्ण कुपरिणामों और सुपरिणामों सहित मार्मिक व्यंजना होती काकः कृष्णः पिकः कृष्णः को भेदो पिक काकयोः । प्राप्ते तु बसन्तसमये काकः काकः पिकः पिकः ॥ यहाँ कौआ गुणहीन व्यक्ति का प्रतीक है, कोयल गुणवान् व्यक्ति का और बसन्तसमय गुणी व्यक्ति के लिये अपनी योग्यता प्रकट करने के उचित अवसर का । इन कौआ, कोयल और बसन्त समय के प्रतीकों द्वारा जो बिम्ब निर्मित होता है उससे यह सत्य प्रकाशित होता है कि ऊपर से गुणहीन और गुणवान् व्यक्तियों में भेद प्रतीत नहीं होता, किन्तु गुणों
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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