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________________ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन १२१ है, परन्तु रस को शब्दों में कहना दोष है । स्वशब्दवाच्यत्व दोष यही है । अब यदि रस या भाव को स्पष्टरूप से वाचक शब्दों से कहना दोष है, तब भाव की अभिव्यक्ति का साधन क्या रह जाता है ? स्पष्ट ही तब भाव की अभिव्यक्ति का एकमात्र साधन बिम्ब अथवा चित्र ही रह जाता है । रूप बिम्ब में वर्णित होने पर ही वर्णन रसात्मक हो सकता है, अन्यथा नहीं । इस पर आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने "चिन्तामणि" में बड़े विस्तार से विचार किया है: 'क्रोध आ रहा है' कहने मात्र से क्रोध की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती। उसके लिए बड़बड़ाना, दाँत पीसना, आँखें लाल होना - आदि अनुभावों को लाना होगा, जो बिम्ब के ही रूप हैं। इनके द्वारा शब्द (वाचक) के अभाव में भी क्रोध भाव को हृदयस्थ किया जा सकता है । अर्थात् क्रोधभाव जब शब्दरूप में न आकर शब्द चित्रों के रूप में आये, तभी वह अनुभवगम्य हो सकता है । इस प्रकार भी भाव एवं रस के लिए अभिव्यक्ति का साधन बिम्ब ही प्रतीत होता है।" - "रसानुभूति में बिम्ब की इस अनिवार्यता को सभी जागरूक आलोचकों ने स्वीकार किया है । स्पष्ट स्वीकारोक्ति तो नहीं है, पर उनका अनुभव ऐसा था यह प्रकट हो जाता है । संस्कृत के कवियों ने चित्रों अथवा बिम्बों के प्रयोग बहुलता से किये हैं और कालिदास, बाल्मीकि, बाण आदि ने सुन्दर और श्रेष्ठ चित्र प्रस्तुत किये। परन्तु प्रयोग में आने पर भी आलोचकों के क्षेत्र में बिम्ब अथवा चित्रमय वर्णन की विवेचना का अभाव ही रहा । कुछ ही व्यक्तियों ने इसे उल्लिखित किया । अभिनव गुप्त के आचार्य भट्टतौत ने श्रव्य काव्य में प्रत्यक्षवत्ता के गुण को बड़ा आवश्यक माना है और बड़े स्पष्ट शब्दों में उसे उपस्थित किया है । उन्होंने कहा है कि कुशल कवि अपने वर्णन के माध्यम से सहृदय के सम्मुख मानों चित्र ही उपस्थित करता है । अतएव नाट्य की सी चित्रमयता न होने पर काव्य में रसोद्बोध कभी संभव नहीं हो सकता - 'प्रयोगत्वमनापन्ने काव्येनास्वादसम्भवः' । इसप्रकार उन्होंने रस के सन्दर्भ में चित्रों एवं बिम्बों की महत्ता स्वीकार की है।" २ आधुनिक आलोचकों ने भी चित्र धर्म को भाषा का प्रमुख धर्म स्वीकार किया है। आचार्य शुक्ल की मान्यतायें इस विषय में बड़ी स्पष्ट हैं । उन्होंने कहा है : काव्य में अर्थग्रहण मात्र से काम नहीं चलता, बिम्बग्रहण अपेक्षित होता है । यह बिम्बग्रहण निर्दिष्ट, गोचर, और मूर्त विषय का ही हो सकता है (रस मीमांसा, पृष्ठ - १६७)। शुक्लजी बिम्बात्मक वर्णन के बड़े समर्थक हैं। १. जायसी की बिम्ब योजना : पृ० १४९ २. वही. पाठ १४९
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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