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________________ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन चला लक्ष्मीश्चताः प्राणाश्चलं जीवितयौवनम् । . चलाचले च संसारे धर्म एको हि निश्चलः ॥' यहाँ "चला" पद की पुनरुक्ति संसार के प्रत्येक पदार्थ की नश्वरता व्यंजित करने का अद्वितीय साधन है। उदये सविता ताम्रस्ताम्रश्चास्तमने तश। सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता ॥ यहाँ "ताम्र" शब्द की पुनरुक्ति से उदय और अस्त दोनों अवस्थाओं में एकरूपता का द्योतन होता है। "ताम्र" के रूप में "रक्त" का भी प्रयोग हो सकता था, किन्तु "ताम्र" के अतिरिक्त अन्य पर्याय का प्रयोग किया जाता तो अर्थभेद न होने पर भी शब्दभेद के कारण एकरूपता की प्रतीति न हो पाती ।। काकः कृष्णः पिकः कृष्णः को भेदः पिककाकयोः। बसन्तकाले सम्प्राप्ते काकः काकः पिकः पिकः ॥ यहाँ उत्तरार्ध में पुनरुक्त “काकः" और "पिकः" पद क्रमशः “कर्कश ध्वनि करने वाला " तथा "मधुर ध्वनि करने वाला" अर्थ ध्वनित करते हैं । यह लाटानुप्रास तथा अर्थान्तर संक्रमितवाच्य ध्वनि का भी उदाहरण है। पदकममूलक अलंकार पुनरुक्त पदों के क्रमविशेष या स्थानविशेष में भी अर्थविशेष की व्यंजना होती है। उदाहरणार्थ - यूयं वयं वयं यूपमित्यासीन्मति रावयोः । किं जातमधुना मित्र ! यूयं यूयं वयं वयम् ॥ . इस श्लोक के पूर्वार्ध में “यूयं वयं वयं यूयम्" पदों का जो क्रम है उससे दोनों व्यक्तियों की अभिन्नहृदयता व्यंजित होती है। उत्तरार्ध में इन्हीं पदों का क्रम बदलकर “यूयं यूयं वयं वयम्" इस प्रकार हो गया है, जिससे दोनों की भिन्नहृदयता का घोतन होता है। पदों के इस क्रम परिवर्तन से उक्ति में वैचित्र्य भी है। १. वैराग्यशतक, ९६ २. शैली और शैलीविज्ञान - वि. कृष्णस्वामी अयंगार, पृष्ठ- ५४
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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