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________________ ८६ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन सन्दर्भ के अभाव में अपने मूल स्वरूप का ही बोध कराती है। जैसे- "मोहि सुनि सुनि आवत हाँसी, पानी में मीन पियासी" "कबीर के इन शब्दों से जो भाव (आवश्यक वस्तु की प्रचुर उपलब्धि होने पर भी उसके भोग से वंचित रहना ) व्यंजित होता है उससे "पानी" सुख के स्त्रोतभूत आत्मस्वभाव का प्रतीक बन गया है तथा "मीन" आत्मा का । एक ही वस्तु भिन्न-भिन्न सन्दर्भों में भिन्न-भिन्न अर्थों का प्रतीक बन सकती है। जैसे "कली" कहीं अपरिपक्व अवस्था का प्रतीक हो जाती है तो कहीं सुख का । "मृग" कहीं मन को संकेतित करता है, कहीं भ्रान्त व्यक्ति को । प्रतीकों का अभिव्यंजनागत (भाषिक) महत्त्व - प्रतीकभूत पदार्थ के गुण और विशेषतायें लोगों के अनुभव के विषय होते हैं तथा वे अमूर्तभावों (भावात्मक तत्त्वों) जैसे वस्तु और व्यक्ति के स्वभावों व रूपों, गुणों और अवगुणों, संवेगों और प्रवृत्तियों मनःस्थितियों और परिस्थितियों, दशाओं और परिणतियों की जीवन्त अनुभूति कराने के अमोघ साधन हैं। प्रतीक के द्वारा संकेतित वस्तु का पूरा स्वभाव व्यंजित हो जाता है। जैसे अज्ञान के लिए अन्धकार शब्द का प्रयोग किया जाये तो अज्ञान के सारे स्वभाव का साक्षात्कार भी हो जाता है; क्योंकि अन्धकार के स्वभाव से हम परिचित होते हैं । अतः प्रतीक द्वारा संकेतित वस्तु अपने पूरे स्वभाव के साथ हृदय में उतरती है। इससे भाषा भी हृदयस्पर्शी हो जाती है। प्रतीक बात को स्पष्ट रूप से न कहकर संकेत रूप से कहते हैं, इसलिए उनके प्रयोग से भाषा में जिज्ञासोत्पादकता और रोचकता आ जाती है । प्रतीक उक्तिवैचित्र्य रूप होते हैं, इस कारण भी भाषा रोचक बन जाती है। इसके अतिरिक्त जिस तथ्य को साधारण भाषा व्यक्त नहीं कर सकती, प्रतीक उसे सहज ही अभिव्यक्त कर देता है । महाकवि आचार्य ज्ञानसागरजी ने इन्हीं उद्देश्यों की सिद्धि के लिए अपनी काव्यभाषा में प्रतीकों का प्रयोग किया है। उन्होंने विभिन्न क्षेत्रों से प्रतीक ग्रहण किये हैं । क्षेत्र के आधार पर उन्हें निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है प्राकृतिक, सांस्कृतिक, पौराणिक, ऐतिहासिक, राजनीतिक एवं प्राणी-वर्गीय | - प्राकृतिक प्रतीक प्रकृति से ग्रहण किये गये प्रतीक प्राकृतिक प्रतीक हैं । जैसे - सूर्य, चन्द्र, रात, दिन, फूल, कांटा आदि । इनका प्रयोग आचार्य श्री ने अनेक स्थलों पर किया है। उदाहरणार्थगता निशाऽथ दिशा उद्घाटिता भान्ति विपूतनयनंभूते ! कोsस्तु कौशिकादिह विद्वेषी परो नरो विशदीभूते ॥ ८/९० - हे विशाल एवं निर्मल नयनों वाली पुत्री ! निशा बीत गई, अब सभी दिशायें स्पष्ट दिखाई देने लगी हैं। ऐसे प्रकाशमान समय में उल्लू के सिवा ऐसा कौन प्राणी होगा जो प्रसन्न न हो ।
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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