SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन ७९ मुख मुरझाना मुरझाना का मुख्यार्थ फूलों का संकुचित होना है, किन्तु मुख के प्रसंग में उदास या निराश हो जाने के अर्थ में प्रसिद्ध हो गया है; अतः इस सन्दर्भ में वह मुहावरा बन गया है । मुहावरों का भाषिक वैशिष्ट्रय · मुहावरों में अनेक तथ्य घटनायें और अनुभूतियाँ संश्लिष्ट होती हैं, इसलिये वे परिमित शब्दों में अपरिमित भावों के बोधक होते हैं । लक्षणात्मक होने से उनमें वैचित्र्योपादन की क्षमता तथा व्यजंकता के कारण भावानुभूति कराने की सामर्थ्य होती है जिससे अभिव्यक्ति रुचिकर एवं आकर्षक हो जाती है । वे दैनिक अनुभूतियों से सम्बद्ध होते हैं अतः उनके द्वारा सूक्ष्म अर्थ सरलतया बोधगम्य हो जाता है । मुहावरों के कई रूप होते हैं । जैसे वक्रक्रियात्मक, वक्रविशेषणात्मक, अनुभावात्मक, निदर्शनात्मक, प्रतीकात्मक, रूपकात्मक, उपमात्मक आदि । अतः इनसे व्यक्ति की बौद्धिक एवं चारित्रिक विशेषतायें, संवेगात्मक दशा, सुख-दुख, द्वन्द्व, संशयादि से ग्रस्त मनःस्थिति, हृदयगत अभिप्राय तथा वस्तुओं एवं घटनाओं का हृदयस्पर्शी स्वरूप प्रतिभासित हो जाता है । " वह बड़ा क्रोधी है" ऐसा कहने से मनुष्य के क्रोधात्मक स्तर का वैसा प्रतिभास नहीं होता, जैसा " वह तो जल्लाद है" कहने से होता है । अतः वस्तुस्थिति के प्रतिभासक होने के कारण मुहावरे अत्यन्त हृदयस्पर्शी होते हैं । जयोदय में मुहावरे - महाकवि ने जयोदय में मुहावरों का प्रयोग किया है जिससे भाषा लाक्षणिक एवं व्यंजक बन गयी है । भाषाप्रवाह में सजीवता, सशक्तता और चित्तस्पर्शिता के गुण आ गये हैं । सौन्दर्यातिशय, प्रभावातिशय एवं चित्रात्मकता की सृष्टि हुई है । भावावेश, पात्रों के मनोभावों तथा मनोदशाओं की प्रभावशाली अभिव्यंजना हो सकी है । जयोदय में प्रयुक्त मुहावरों को निम्न वर्गों में विभाजित किया जा सकता है - वक्रक्रियात्मक मुहावरे, वक्रविशेषणात्मक मुहावरे, निदर्शनात्मक मुहावरे, अनुभावात्मक मुहावरे, उपमात्मक मुहावरे एवं रूपकात्मक मुहावरे । वक्रक्रियात्मक मुहावरे जब क्रिया का विशिष्ट शब्द के साथ असामान्यरूप से प्रयोग होता है तब वह रूद हो जाता है और वक्कक्रियात्मक मुहावरा कहलाता है । कवि ने इन मुहावरों के प्रयोग द्वारा
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy