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________________ जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन उभयोः शुभयोगकृताबन्धः समभूदञ्चलवान्तभागबन्धः। न परं दृढ़ एव चानुबन्यो मनसोरप्यनसोः श्रियां स बन्यो । १२/६३ अर्ककीर्ति के युद्धोन्मुख होने के समाचार से राजा अकम्पन भयभीत एवं चिन्तित हो जाते हैं । कवि ने उनकी भयावस्था का द्योतन "हृदय काँप उठा" उपचारवक्रता के द्वारा बड़ी सफलता से किया है - प्राप्य कम्पनमकम्पनो इदि मन्त्रिणां गणमवाप संसदि । ७/५५ पूर्वार्ष निम्न उक्ति में अमूर्त प्राण पर कीलित होने का एवं अमूर्त हृदय पर रुदन करने का आरोप है, जो युद्ध में पराजित अर्ककीर्ति के सन्तापातिशय को अत्यन्त प्रभावशाली ढंग से अभिव्यंजित करते हैं . . "इस समय मेरे चंचल प्राण निकलते क्यों नहीं हैं ? उल्टे वे कीलित क्यों हो गये? यही सोच-सोच कर मेरा हृदय रो रहा है । स्वयं के पराजय की तिरस्कार कथा मुझे पीडित कर रही है।" किमाना न चरन्त्यसवश्वराः स्वपमिताः किमु कीलनमित्वराः। रुदति मे हदयं सदयं भवत्तुदति चात्मविघातकथाश्रवः ॥ ९/७ भक्ति के अतिशय की प्रभावी अभिव्यंजना अमूर्त चित्त पर मूर्त पदार्थों के धर्म "लुप्त होने" एवं “अन्वेषण किये जाने" के आरोप द्वारा संभव हो सकी है - __ "जयकुमार का चित्त सूक्ष्म होने के कारण भगवान् के चरणों में लुप्त हो गया । उसका अन्वेषण करने के लिए ही जयकुमार ने वहाँ की चरणरज प्राप्त की।" सूसत्यतो सुसमवेत्य चेतः श्रीपादयोर्निजतायवेतः। अवापि तत्रत्वरजस्तु तेन संशोधनाधीनगुणस्तुतेन ॥ २४/९८ अमूर्त गुणों पर मूर्त पदार्थ के धर्म "बाँधना" के आरोप द्वारा गुणों की आकर्षण शक्ति का घोतन प्रभावशाली ढंग से किया गया है - “जो जयकुमार वज्र की सन्तति को छिन्न भिन्न करने वाला तथा ऐश्वर्यशाली था, वह सुलोचना के कोमल गुणों से बँध गया।" - गुणेन तस्या मृदुना निबद्धः स योऽशनेः सन्ततिमित्समद्धः॥१/७१ पूर्वार्ष "पिया जाना" मूर्त जलादि का धर्म है । उसका प्रयोग रूप, वचन आदि अमूर्त पदार्थों के साथ कर कवि ने उनके पूर्णतः आत्मसात् या हृदयंगम किये जाने के भाव को चारुत्वपूर्ण अभिव्यक्ति प्रदान की है -
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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