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________________ ७० जयोदय महाकाव्य का शैलीवैज्ञानिक अनुशीलन महतामपि भो भूमो दुर्लभं यस्य दर्शनम् । भाग्योदयाचकास्तीति स पाणी मे महामणिः ॥१/१०६ - हे मुनिवर ! इस धरती पर जिसके दर्शन महापुरुषों के लिए भी दुर्लभ हैं, वह महामणि (आप) मेरे भाग्योदय से आज मेरे हाथ में शोभित हो रहा है । इस उक्ति में राजा जयकुमार मुनिवर से वार्तालाप करते समय उन्हें महामणि कहता है । यहाँ जयकुमार के द्वारा उनके लिए मध्यम पुरुष के सर्वनाम “त्वम्” एवं “तव” प्रयुक्त. किये जाने चाहिए किन्तु उनका प्रयोग न कर प्रथम पुरुष के सर्वनाम “सः” और “यस्य" प्रयुक्त किये गये हैं । इसलिए यहाँ पुरुष वक्रता है । इस प्रयोग से जयकुमार के मन में मुनिराज के प्रति एक अत्यन्त उच्चभाव के अस्तित्व की अभिव्यक्ति होती है, साथ ही उक्तिवैचित्र्यजन्य रमणीयता का बोध होता है। उपसर्गवकता जहाँ उपसर्ग के द्वारा वस्तु के वैशिष्ट्य का द्योतनकर भाव-विशेष के अतिशय का बोध कराया जाता है अथवा उसके द्वारा विभावादि सामग्री उपस्थितकर रसाभिव्यक्ति की जाती है, वहाँ उपसर्गवकता होती है।' यथा जयोदय में - (क) भरतेशतुगेष तवाव रतेः स्मरवत् किमर्ककीर्तिरयम् । अम्भोजमुखि भवेत्सुखि आस्यं पश्यन् सुहासमयम् ॥ ६/१४॥ - हे कमलमुखी ! यह चक्रवर्ती भरत का पुत्र अर्ककीर्ति है । क्या यह तुम्हारे मनोहर हास से सुशोभित मुख को देखते हुए उसी प्रकार सुख प्राप्त करेगा जिस प्रकार रति का मुख देखकर कामदेव प्राप्त करता है? (अर्थात् क्या तुम इसका वरण करना चाहोगी ?) यहाँ "सुहासमयम् आस्यम्" में "सु" उपसर्ग के द्वारा हास की मनोहरता व्यंजित करते हुए मुख का सौन्दर्यातिशय धोतित किया गया है, जो उद्दीपन विभाव के रूप में शृंगार रस की अभिव्यक्ति का हेतु बन गया है । अतः यहाँ "सु" उपसर्गवक्रता से मण्डित (ब) प्रत्युपेत्य निजगी वचोहरः प्रेरितैणपतिवदयारः । दुर्निवार इति नैति नो गिरश्चक्रवर्तितनयो महीश्वर ॥७/७१॥ १. रसादिद्योतनं यस्यमुपसर्गनिपातयोः । वाक्यैकजीवितत्वेन सा परा पदवक्रता | वक्रोक्तिजीवित, २/३३
SR No.006193
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Shaili Vaigyanik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAradhana Jain
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra Byavar
Publication Year1996
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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