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________________ 347 आदि के प्रति जो निंदनीय वचन मैंने कहे हैं तथा अज्ञान के द्वारा जो कुछ मैंने कहा है, उन सब पापों की मैं इस समय गर्हा करता हूँ। श्रुत, धर्म, संघ और साधुओं के प्रति जो पाप और प्रतिकूल आचरण मैंने किये हैं उनकी और अन्य दूसरे पापों की मैं इस समय गर्हा करता हूँ । अन्य जीवों के प्रति मैत्री और करुणा रखते हुए भी भिक्षाचार्या में मैंने इन जीवों को जो परिताप और दुःख पहुँचाया है, उन पापों की मैं इस समय निंदा करता हूँ । ग्रंथकार दुष्कृत गर्हा की चर्चा यह कहकर पूर्ण करता है कि मन-वचन-काया तथा कृत-कारिता और अनुमोदन पूर्वक जो धर्म विरुद्ध अशुद्ध आचरण मैंने किया है उन सब पापों की मैं गर्हा करता हूँ (51-54)। दुष्कृत के पश्चात् सुकृत अनुमोदना की चर्चा करते हुए ग्रंथकार कहता है कि अरहंतों में अरहंतत्व, सिद्धों में सिद्धत्व, आचार्यों में आचार्यत्व, उपाध्यायों में उपाध्यायतत्व, साधुओं में साधुत्व, श्रावकजनों में श्रावकत्व और सम्यक् दृष्टियों में सम्यकत्व इन सबका मैं अनुमोदन करता हूँ तथा वीतराग के वचनानुसार जो कुछ भी सुकृत है, उनकी सर्वे समय में त्रिविध रूप से मैं अनुमोदना करता हूँ ( 55-58) । ग्रंथ में चतुःशरण गमन आदि का फल निरुपण करते हुए कहा गया है कि चतुःशरण गमन का आचरण करने वाला जीव नित्य शुभ परिणाम वाला होता है । कुशल स्वभावी जीव शुभ अनुभाव का बंधन करता है । आगे कहा गया है कि मंद अनुभाव से बद्ध जीव मंद अशुभ बंधन बांधता है। आगे ग्रंथकार कहता है कि नित्य संक्लेश में बंधकर त्रिकाल में भी सुकृत फल की प्राप्ति नहीं हो सकती, किन्तु असंक्लेश में सुकृत फल की प्राप्ति हो सकती है, ऐसा विज्ञजनों ने कहा है । चतुःशरण गमन नहीं करने वाले जीव के लिए कहा गया है कि ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप रूप चतुर्विध धर्म - जिनधर्म का अनुपालन नहीं करने वाला, चतुःशरण गमन नहीं जाने वाला तथा जिसने नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देवता ऐसे चतुर्गति रूप संसार का छेदन नहीं किया है, ऐसा जीव मनुष्य जन्म को हार जाता है (59-62)। ग्रंथकार ग्रंथ का समापन यह कहकर करता है कि हे जीव ! वीरभद्र रचित इस अध्ययन का प्रमाद रहित होकर जो तीनोंसमय में ध्यान करता है, वह निर्वाण सुख प्राप्त करता है (63) । चतुः शरण प्रकीर्णक की विषयवस्तु का निरुपण निम्न चार परिच्छेदों में हुआ है 1. अर्थाधिकार, 2. चतुःशरण गमन, 3. दुष्कृत गर्हा और 4. सुकृत अनुमोदना ।
SR No.006192
Book TitlePrakrit Ke Prakirnak Sahitya Ki Bhumikaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages398
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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