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________________ 10 उल्लेख है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि स्पष्ट संघभेद ईसा की पांचवीं शती की घटना है, जिसका संबंध चाहे किसी रूप में नैमित्तिक भद्रबाहु से तो हो सकता है, किन्तु श्रुतकेवली भद्रबाहु से कदापि नहीं है। इसका यह अर्थ भी नहीं है कि दिगम्बर स्त्रोतों में जो वस्त्र पात्र विवाद की सूचना है, वह पूर्णतः निःस्सार है। दिगंबर परंपरा के भद्रबाहु संबंधी कथानकों में संघ भेद संबंधी जो घटनाक्रम वर्णित है, उसमें कितना सत्यांश है, यह समझने के लिये पहले इनकी समीक्षा कर लेनी होगी। दिगम्बरों के मान्य साहित्य में यतिवृषभ की तिलोयपण्णति (5-6 शती) में भद्रबाहु का निर्देश तो है, किन्तु उसमें ऐसा कोई उल्लेख नहीं है, जो यह बताता हो कि श्वेताम्बर एवं यापनीय परंपराओं की उत्पत्ति कैसे हुई ? सर्वप्रथम हरिषेण के बृहत्कथाकोश (दसवी शती) में एवं विमलसेन के शिष्य देवसेन के भाव संग्रह (लगभग दसवीं शती) में श्वेताम्बर मत की उत्पत्ति की कथा को भद्रबाहु के कथानक के साथ जोड़ दिया गया है, किन्तु इसमें काल संबंधी विसंगति स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। एक ओर इसमें भद्रबाहु के शिष्य शान्त्याचार्य के द्वादशवर्षीय दुष्काल में वल्लभी जाने और वहाँ जाकर कम्बल, पात्र, दण्ड एवं श्वेत वस्त्र ग्रहण करने का निर्देश है, साथ ही इस कथा में यह भी कहा गया है कि सुकाल होने पर शान्त्याचार्य द्वारा वस्त्रादि के त्याग का निर्देश देने पर उनके शिष्य (जिनचन्द्र) ने उनको मार डाला। उसके बाद वह शान्त्याचार्य व्यंतर योनि में उत्पन्न होकर शिष्यों को पीड़ा देने लगा। शिष्यों द्वारा उनकी प्रतिदिन पूजा (शांति स्नात्र) करने और काष्ठपट्टिका पर अंकित उनके चरण सदा साथ रखने का वचन देने पर वह व्यन्तर शांत हुआ और इस प्रकार श्वेताम्बरों का कुलदेव बन गया। इसमें इस घटना का समय विक्रम की मृत्यु के 136 वर्ष बाद अर्थात् वीर निर्वाण संवत् 606 बताया है, जबकि श्रुतकेवली भद्राबाहु का स्वर्गवास तो वीर निर्वाण संवत् 162 में हो गया था। इस प्रकार यह कथानक न तो श्रुतकेवली भद्रबाहु के समय से संगति रखता है और न नैमित्तिक भद्रबाहु के समय से क्योंकि श्रुतकेवली भद्रबाहु तो उसके 460 वर्ष पूर्व ही स्वर्गस्थ हो चुके थे और नैमित्तिक भद्रबाहु इसके लगभग 400 वर्ष बाद हुए हैं, अतः यह कथानक पूरी तरह काल्पनिक है। इसमें सत्यांश मात्र यह है कि वस्त्र-पात्र संबंधी यह विवाद आर्यभद्रगुप्त के गुरु शिवभूति और आर्यकृष्ण के बीच वीर निर्वाण संवत् 606 या 609 में ही हुआ था, क्योंकि इसकी पुष्टि श्वेताम्बर और दिगंबर- दोनों ही साहित्यिक स्त्रोतों से हो
SR No.006191
Book TitleJain Sahityakash Ke Aalokit Nakshatra Prachin Jainacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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