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________________ छोड़कर नए-नए अर्थ को ग्रहण करते रहे हैं । प्रस्तुत निबंध में हम इन्हीं दो कठिनाइयों के संदर्भ में जैन पारिभाषिक शब्दों के अर्थ-निर्धारण की समस्या पर प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे। शब्द के अर्थ - निर्धारण की समस्या से जैनाचार्य प्राचीन काल से ही परिचित थे, अतः उन्होंने सर्वप्रथम निक्षेप और नय के सिद्धांतों का विकास किया, ताकि संदर्भ और वक्ता के अभिप्राय के आधार पर शब्द एवं वाक्य के अर्थ का निर्धारण किया जा सके। शब्द के अर्थ निर्धारण में उसके संदर्भ का विचार करना यह निक्षेप का कार्य है और वक्त के अभिप्राय के आधार पर वाक्य का अर्थ समझना यह नय का कार्य माना गया। निक्षेप शब्द के अर्थ का निश्चय करता है और नय वाक्य के अर्थ का निश्चय करता है । शब्दों के अर्थ-निर्धारण एवं उनको पारिभाषित करने में एक समस्या यह भी ग्रंथ किसी अन्य देश एवं काल की रचना होता है और उसके व्याख्याकार या टीकाकार किसी अन्य देश और काल के व्यक्ति होते हैं । इसलिए कभी-कभी उनके द्वारा की गई शब्द की परिभाषाएं अपने मूल अर्थ से भिन्न होती हैं और कभी-कभी भ्रांत भी । जैन परम्परा में कई शब्दों के टीकाकारों के द्वारा किए गए अर्थ अपने मूल अर्थ से भिन्न हैं और कभी-कभी तो ग्रंथ के हार्द को भी समझने में कठिनाई उत्पन्न करते हैं। यह समस्या भी विशेष रूप से उन ग्रंथों के संदर्भ में है जो पर्याप्त प्राचीन हैं। ऐसे ग्रंथों में हम आचारांग, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित और कुछ छेदसूत्रों को ले सकते हैं। यहां हम इनके सभी शब्दों के संदर्भ में तो विचार नहीं कर सकेंगे, किंतु कुछ प्रतिनिधि पारिभाषिक शब्दों को लेकर उनके अर्थ-निर्धारण की समस्या पर विचार करेंगे। सर्वप्रथम हम अरिहंत या अरहंत शब्द को ही लें। प्राचीनकाल में वह शब्द जैन परम्परा का विशिष्ट शब्द न होकर भारतीय परम्परा का एक सामान्य शब्द था। अपने मूल अर्थ में यह शब्द पूजा-योग्य अर्थात् पूजनीय या 'सम्माननीय' अर्थ का वाचक था और उसके बाद यह शब्द वासनाओं से मुक्त एवं राग-द्वेष के विजेता वितराग व्यक्ति के लिए प्रयोग किया जाने लगा, क्योंकि वह सम्माननीय या पूज्यनीय होता था । प्राचीन जैन एवं बौद्धग्रंथों में यह शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ, किंतु जब जैन परम्परा में कर्म - सिद्धांत का विकास हुआ तो इस शब्द को पुनः एक नया अर्थ मिला और यह कहा गया कि जो व्यक्ति चारघाती कर्मों को अर्थात् ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय को क्षय कर लेता है, वह 'अर्हत्' है। ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षय करने के कारण 'अरहन्त' 91
SR No.006189
Book TitleBauddh Dharm Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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