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________________ है।' (दर्शनदिग्दर्शन, पृ.495) इस विवरण में महावीर की शिक्षाओं को चार्तुयाम संवर के रूप में प्रस्तुत करते हुए, उन्होंने जिस चार्तुयाम संवर का उल्लेख किया है, वस्तुतः वह चार्तुयाम संवर का मार्ग महावीर का नहीं, पार्श्व का है। परवर्तीकाल में जब पार्श्व की निग्रंथ परम्परा महावीर की परम्परा में सम्मिलित हो गई, तो त्रिपिटक संकलनकर्ताओं ने दोनों धाराओं को एक मानकर पार्श्व के विचारों को भी महावीर के नाम से ही प्रस्तुत किया। त्रिपिटक के संकलन कर्ताओं की इस भ्रांति का अनुसरण राहुलजी ने भी किया और अपनी ओर से टिप्पणी के रूप में भी इस भूल के परिमार्जन का कोई प्रयत्न नहीं किया। जबकि उनके सहकर्मी बौद्धभिक्षु जगदीश काश्यपजी ने इस भूल के परिमार्जन का प्रयत्न दीघनिकाय की भूमिका में विस्तार से किया है, वे लिखते हैं-- ‘सामञवफलसुत्त' में वर्णित छ: तैर्थिकों के मतों के अनुसार, अपने-अपने साम्प्रदायिक संगठनों के केंद्र अवश्य रहे होंगे। इनके अवशेष खोजने के लिए देश के वर्तमान धार्मिक-जीवन में खोज करना सार्थक होगा। कम से कम 'निगण्ठ-नातपुत्त' से हमलोग निश्चित रूप से परिचित हैं। वे जैनधर्म के अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर ही हैं। पालि-संस्करण में वे ही 'चातुर्याम संवर' सिद्धांत के प्रर्वत्तक कहे जाते हैं। सम्भवतः ऐसा भूल से हो गया है। वास्तव में 'चातुर्याम-धर्म के प्रर्वतक उनके पूर्ववर्ती तीर्थंकर पार्श्वनाथ थे-- सव्वातो पाणातिवायाओ वेरमणं एवं मुस्सावायाओ वेरमणं, सव्वातो अदिनादाणाओवेरमणं, सव्वातो बहिद्धादाणाओ वेरमणं (ठाणांग (ठाण 4), पृ.201, सूत्र 266)। उपर्युक्त वर्णित 'चार्तुयाम संवर' सिद्धांत में परिग्गहवेरमणं' नामक एक और व्रत जोड़कर पार्श्वनाथ के परवर्ती तीर्थंकर महावीर ने पंचमहाव्रत-धर्म का प्रवर्तन किया। (ज्ञातव्य है कि यहां काश्यपजी से भी भूल हो गई है, वस्तुतः महावीर ने परिग्रह विरमण नहीं, मैथुनचिरमण या ब्रह्मचर्य का महाव्रत जोड़ा था। 'बहिद्धदाण' का अर्थ तो परिग्रह है ही। पार्श्व स्त्री को भी परिग्रह ही मानते थे।) यह भी विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि जिस रूप में पालि में चातुर्यामसंवर' सिद्धांत का उल्लेख मिलता है, वैसा जैन साहित्य में कहीं भी उपलब्ध नहीं होता। पालि में यह इस प्रकार वर्णित है-- ‘सब्बवारिवारिताच होति, सब्बवारियुत्तोच, सब्बवारिधुतो च, सब्बवारिफुटो' और इसका अर्थ भी स्पष्ट ज्ञात नहीं होता। इसे देखकर यह ज्ञात होता है कि सम्भवतः यह तोड़-मरोड़ के ही कारण है।' (दीघनिकाय-नालंदासंस्करण, प्रथमभाग (84)
SR No.006189
Book TitleBauddh Dharm Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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