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________________ होगा या नित्य मानना होगा, किंतु एकांत क्षणिक और एकांत नित्य में भी अर्थक्रिया सम्भव नहीं हैं, जबकि स्वलक्षण को अर्थक्रिया में समर्थ होना चाहिए, अतः जैन दार्शनिकों का कथन है किं नित्यानित्य या उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक वस्तु ही प्रमेय हो सकती है। यहां ज्ञातव्य है कि बौद्ध दार्शनिक भी परमतत्त्व, परमार्थ या स्वलक्षण को न तो नित्य मानते हैं और न अनित्य मानते हैं । जैन और बौद्ध दर्शन में मात्र अंतर यह है कि जहां जैन दर्शन विधिमुख से उसे नित्यात्यि, सामान्यविशेषात्मक या द्रव्यपर्यायात्मक कहता है, वहां बौद्ध दर्शन उसके सम्बंध में निषेधमुख से यह कहता है कि वह सामान्य भी नहीं हैं, विशेष भी नहीं है, शाश्वत भी नहीं है, विनाशशील भी नहीं है आदि। प्रमेय के स्वरूप के सम्बंध में दोनों में जो अंतर है वह प्रतिपादन की विधिमुख और निषेधमुख शैली का है । इस प्रकार दोनों दर्शनों में प्रमाण और प्रमेय के स्वरूप के सम्बंध में क्वचित् समानताएं और क्वचित् भिन्नताएं हैं। उपसंहार बौद्ध और जैन प्रमाणमीमांसा में जो समानताएं और असमानताएं परिलक्षित होती हैं, उनका संक्षिप्त उल्लेख आवश्यक है 1. जैन और बौद्ध दर्शन दोनों ही दो प्रमाण मानते हैं, किंतु जहां जैनदर्शन प्रमाण के इस द्विविध में प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो प्रमाणों का उल्लेख करता है, वहां बौद्ध दर्शन प्रत्यक्ष और अनुमान ऐसे दो प्रमाण स्वीकार करता है। इस प्रकार प्रमाण के द्विविधवर्गीकरण के सम्बंध में एकमत होते हुए भी उनके नाम और स्वरूप को लेकर दोनों में मतभेद है। दोनों दर्शनों में प्रत्यक्ष प्रमाण तो समान रूप से स्वीकृत हैं, किंतु दूसरे प्रमाण के रूप में जहां बौद्ध अनुमान का उल्लेख करते हैं, वहां जैन परोक्ष प्रमाण का उल्लेख करते हैं और परोक्ष प्रमाण के पांच भेदों में एक भेद अनुमान प्रमाण मानते हैं। प्रत्यक्ष के अतिरिक्त परोक्षप्रमाण में वे स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, तर्क, अनुमान और आगम को भी प्रमाण मानते हैं। 2. बौद्धदर्शन में स्वलक्षण और सामान्यलक्षण नामक दो प्रमेयों के लिए दो अलगअलग प्रमाणों की व्यवस्था की गई है, क्योंकि उनके अनुसार स्वलक्षण का निर्णय प्रत्यक्ष प्रमाण से होता है, किंतु जैन दर्शन वस्तुतत्त्व को सामान्यविशेषात्मक मानकर यह मानता है कि जिस प्रमेय को किसी एक प्रमाण को जाना जाता है उसे अन्य - अन्य प्रमाणों से भी जाना जा सकता है, अर्थात् सभी प्रमेय सभी प्रमाणों के विषय हो सकते हैं, जैसे अग्नि को प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों प्रमाणों से जाना जा सकता है। इस आधार पर 33
SR No.006189
Book TitleBauddh Dharm Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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