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________________ यह निर्विकल्प बोध कैसे उपलब्ध हो ? यही समग्र भारतीय साधना-पद्धतियों का लक्ष्य रहा है और इसकी उपलब्धि के लिए विभिन्न प्रकार की ध्यान-साधना पद्धतियों का विकास हुआ है। कालांतर में अनेक ध्यान-साधना पद्धतियां निर्विकल्प बोध की दिशा में अग्रसर तो हुई, किंतु उनके द्वारा निर्विकल्प बोध की उपलब्धि तो दूर ही रही और वे निर्विकल्प स्थिति तक ही सिमट कर रह गई। तंत्र, हठयोग और आधुनिक युग के रजनीश आदि की साधनाएं भी निर्विकल्प स्थिति तक आकर ही रुक गई। वस्तुतः जब ध्यान साधना के नाम पर चित्त को किसी एक ध्यातव्य या साध्य से बांध दिया जाता है, तो फिर निर्विकल्प-बोध सम्भव नहीं हो पाता है, जैन और बौद्ध परम्परा में यह माना गया है कि मोक्ष या निर्वाण की चाह भी मोक्ष या निर्वाण के मार्ग में बाधक है, जैसे कोई पशु अधिक भागदौड़ करता है तो उसे नियंत्रित करने के लिए उसे किसी खूंटे से बांध दिया जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि विवशता की स्थितिमें उसकी चंचल प्रवृत्ति तो रुक जाती है, लेकिन उसका चंचलता का स्वभाव नहीं जाता। यही स्थिति हमारे मन या चेतना की भी है इसमें मन या चित्त जीवित रहता है, निरुद्ध या रूपान्तरित नहीं होता है । विभिन्न साधना-पद्धतियों में मन की चंचलता को समाप्त करने के लिए मंत्रजप, नामजप आदि को स्थान तो दिया किंतु वे मन की चंचल प्रवृत्ति पर नियंत्रण पाने में सफल नहीं हो पाए। कुछ समय के लिए विचार केंद्रित तो हुए, किंतु स्थाई निर्विकल्प - बोध जैसी अवस्था उपलब्ध न हो पाई। प्राचीनकाल में ऐसी कुछ साधना - ‍ -पद्धतियों का भी विकास हुआ था जो निर्विकल्प - स्थिति के स्थान पर निर्विकल्प - बोध की बात करती थी । ऐसी साधना-पद्धतियों एक ओर 'औपनिषदिक ऋषि' - परम्परा सामने आई और उसने साक्षीभाव की साधना का विकास किया। इस साधना में करना कुछ भी नहीं होता है। यहां तक की अपने विकारों, विचारों और विकल्पों के प्रति भी दृष्टाभाव होता है। साधक सहज रूप से मात्र ज्ञाता-दृष्टा बन जाता है। साक्षीभाव की इसी साधना को आगे चलकर सहज-समाधि की साधना का भी नाम दिया गया। इसी क्रम में दूसरी ओर जैन धर्म और बौद्ध धर्म में विपश्यना और प्रेक्षा की साधना पद्धतियों का विकास हुआ। बौद्ध और जैन इन दोनों धारणाओं में क्रमशः विपश्यना और प्रेक्षा की साधना पद्धतियां प्राचीनकाल में भी रही थी, आचारांग जैसे प्राचीनतम जैन आगम में तो विपश्यना और प्रेक्षा इन दोनों शब्दों के उल्लेख हैं। उसमें मात्र कमी यह है कि वह उसकी प्रक्रिया 98
SR No.006189
Book TitleBauddh Dharm Evam Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages112
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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