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________________ भ्रम को तोड़ने में पर्याप्त हैं कि प्राचीनकाल में ब्राह्मी लिपि में 'न्' और 'ण्' के लिए एक ही लिपि का प्रयोग होता था। डॉ. सुदीपजी ने पं. ओझा के मन्तव्य को किस प्रकार तोड़ामरोड़ा है, यह तथ्य तो मुझे ओझाजी की पुस्तक भारतीय प्राचीन लिपिमाला के आद्योपान्त अध्ययन के बाद ही पता चला। लिपिपत्र 67, जो खरोष्ठी लिपि से सम्बन्धित है, के विवेचन में भारतीय प्राचीन लिपिमाला, पृ.100 पर पं. ओझा लिखते हैं कि 'यह लिपिपत्र क्षत्रप राजुल के समय के मथुरा से मिले हुए सिंहाकृति वाले स्तम्भ सिरे के लेखों, तक्षशिला से मिले हुए क्षत्रप पतिक के ताम्रलेख और वहीं से मिले हुए एक पत्थर के पात्र पर उकेरे लेख से तैयार किया गया है। इस लिपिपत्र के अक्षरों में 'उ' की मात्रा का रूप ग्रन्थि बनाया है और 'न्' तथा 'ण्' में बहुधा स्पष्ट अन्तर नहीं पाया जाता है। मथुरा के लेखों में कहीं-कहीं 'त्' 'न्' तथा 'र्' में भी स्पष्ट अन्तर नहीं है।' इसके पश्चात् ओझाजी ने एक अभिलेख का वह अंश दिया, जिसका नागरी अक्षरान्तर इस प्रकार है 'सिहिलेन सिहरछितेन च भतरेहि तखशिलाए अयं युवो प्रतिथवितो सवबुधन पुयए' इसकी पादटिप्पणी में पुनः ओझाजी लिखते हैं कि - 'सिहिलेन से लगाकर पुयए' तक के इस लेख में तीन बार 'ण्' या 'न्' आया है, जिसकों दोनों तरह से पढ़ सकते हैं, क्योंकि उस समय के आसपास के खरोष्ठी लिपि के कितने ही लेखों में 'न्' और 'ण्' में स्पष्ट भेद नहीं पाया जाता। पं. ओझाजी के शब्दों से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि जो बात उन्होंने खरोष्ठी लिपि के सन्दर्भ में कही है, उसे सुदीपजी ने कैसे ब्राह्मी पर लागू कर दिया ? प्राकृतविद्या, अप्रैल-जून 1997 में वे बड़े दावे के साथ लिखते हैं कि 'प्राचीन भारतीय लिपि, विशेषतः ब्राह्मी लिपि, में 'न्' और 'ण्' के लिए एक ही आकृति ( लिपि अक्षर) प्रयुक्त होती थी।' या तो वे इस तथ्य को ही कहीं प्रमाण रूप से प्रस्तुत करें अथवा वरिष्ठ विद्वानों के नाम से अपने पक्ष के समर्थन में भ्रामक रूप से तोड़-मरोड़ कर तथ्यों को प्रस्तुत न करें। यह लिपिपत्र एवं लेख-सभी खरोष्ठी से सम्बन्धित हैं। पुनः, यहाँ भी ओझाजी ने स्वयं 'न्' ही पढ़ा है, 'ण्' नहीं, मात्र पाद टिप्पणी में अन्य सम्भावना के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण दिया है। इसे भी 'न्' ही क्यों पढ़ा जाए 'ण' क्यों नहीं पढ़ा जाए इसके भी कारण हैं। सर्वप्रथम तो हमें उस लेख की भाषा के स्वरूप, क्षेत्र एवं काल का विचार करना होगा, फिर यह देखना 109
SR No.006188
Book TitlePrakrit Bhasha Ka Prachin Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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