SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ का समय वीरनिर्वाण 156-170 मानती हैं। दिगम्बर परम्परा में भी तीन केवली और पाँच श्रुतकेवलि का कुल समय 162 वर्ष माना गया है। भद्रबाहु अन्तिम श्रुतकेवलि थे, अतः दिगम्बर परम्परानुसार भी उनका स्वर्गवास वीरनिर्वाण सं.162 मानना होगा। इस प्रकार दोनों परम्पराओं के अनुसार भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मौर्य की सम-सामयिकता सिद्ध हो जाती है। मुनि श्री कल्याणविजयजी ने चन्द्रगुप्त मौर्य और भद्रबाहु की समसामयिकता सिद्ध करने हेतु सम्भूतिविजय का आचार्यत्वकाल 8 वर्ष के स्थान पर 60 वर्ष मान लिया। इस प्रकार, उन्होंने एक ओर महावीर का निर्वाण समय ई.पू.527 मानकर भी भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त मौर्य की सम सामयिकता स्थापित करने का प्रयास किया, किन्तु इस सन्दर्भ में आठ का साठ मान लेना उनकी अपनी कल्पना है, इसका प्रामाणिक आधार उपलब्ध नहीं है। सभी श्वेताम्बर पट्टावलियाँ वीरनिर्वाण सं.170 में ही भद्रबाहु का स्वर्गवास मानती हैं। पुनः तित्थोगाली में भी यही निर्दिष्ट है कि वीरनिर्वाण संवत् 170 में चौदह पूर्वो के ज्ञान का विच्छेद (क्षय) प्रारम्भ हुआ। भद्रबाहु ही अन्तिम 14 पूर्वधर थे, उनके बाद कोई भी 14 पूर्वधर नहीं हुआ, अतः भद्रबाहु का स्वर्गवास श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार वीरनिर्वाण सं. 170 में और दिगम्बर परम्परा के अनुसार वीरनिर्वाण सं. 162 ही सिद्ध होता है और इस आधार पर भद्रबाहु एवं स्थूलीभद्र की अन्तिम नन्द एवं चन्द्रगुप्त मौर्य से सम-सामयिकता तभी सिद्ध हो सकती है, जब महावीर का निर्वाण विक्रम पूर्व 410 तथा ई.पू.467 माना जाये। अन्य सभी विकल्पों में भद्रबाहु एवं स्थूलीभद्र की अन्तिम नन्दराजा और चन्द्रगुप्त मौर्य से समकालिकता घटित नहीं हो सकती है। 'तित्थोगाली पइन्नयं' में भी स्थूलीभद्र और नन्दराजा की समकालिकता वर्णित है।" अतः, इन आधारों पर महावीर का निर्वाण ई.पू.467 ही अधिक युक्तिसंगत लगता है। पुनः, आर्य सुहस्ति और सम्प्रति राजा की समकालीनता भी जैन परम्परा में सर्वमान्य है। इतिहासकारों ने सम्प्रति का समय ई.पू.231-221 माना है। जैन पट्टावलियों के अनुसार आर्य सुहस्ति युग प्रधान आचार्यकाल वीरनिर्वाण सं.245291 तक रहा है। यदि हम वीरनिर्वाण ई.पू.527 को आधार बनाकर गणना करें, तो यह मानना होगा कि आर्य सुहस्ति ई.पू.282 में युग प्रधान आचार्य बने और ई.पू.236 में स्वर्गवासी हो गए। इस प्रकार, वीरनिर्वाण ई.पू.527 में मानने पर आर्य सुहस्ति और सम्प्रति राजा में किसी भी रूप में समकालीनता नहीं बनती है, किन्तु यदि हम वीरनिर्वाण
SR No.006187
Book TitleBhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy