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________________ SRADH नित्यकूटस्थ-आत्मवाद वर्तमान दार्शनिक परम्पराओं में भी अनेक इस सिद्धान्त के समर्थक हैं कि आत्मा कूटस्थ (निष्क्रिय) एवं नित्य है। सांख्य और वेदांत भी इसके समर्थक हैं। जिन विचारकों ने आत्मा को कूटस्थ माना है, उन्होंने उसे नित्य भी माना है। अतः, हमने भी अपने विवेचन हेतु नित्य आत्मवाद और कूटस्थ आत्मवाद-दोनों को समन्वित रूप से एक ही साथ रखा है। महावीर के समकालीन कूटस्थनित्य आत्मवाद के प्रतिनिधि पूर्णकश्यप थे। पूर्णकश्यप के सिद्धान्तों का चित्रण बौद्ध-साहित्य में इस प्रकार है- अगर कोई क्रिया करे, कराए, काटे, कटवाए, कष्ट दे या दिलाए, चोरी करे, प्राणियों को मार डालेपरदार गमन करे या असत्य बोले, तो भी उसे पाप नहीं। तीक्ष्ण धार वाले चक्र से यदि कोई इस संसार के प्राणियों के मांस का ढेर लगा दे, तो भी उसे कोई पाप नहीं है, दोष नहीं है- दान,धर्म और सत्य भाषण से कोई पुण्य प्राप्ति नहीं होती। इस धारणा को देखकर सहज ही शंका होती है कि इस प्रकार का उपदेश देने वाला कोई यशस्वी, लोकसम्मानित व्यक्ति नहीं हो सकता, वरन् धूर्त होगा, लेकिन पूर्णकश्यप एक लोकपूजित शास्ता थे, अतः यह निश्चित है कि ऐसा अनैतिक दृष्टिकोण उनका नहीं हो सकता। यह उनके आत्मवाद का नैतिक फलित होगा, जो एक विरोधी दृष्टिकोण वाले लोगों द्वारा प्रस्तुत किया गया है। फिर भी, इसमें इतनी सत्यता अवश्य होगी कि पूर्णकश्यप आत्मा को अक्रिय मानते थे, वस्तुतः उनकी आत्म-अक्रियता की धारणा का उपर्युक्त निष्कर्ष निकालकर उनके विरोधियों ने उनके मत को विकृत रूप में प्रस्तुत किया ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्णकश्यप के इस आत्म-अक्रियवाद को उसके पश्चात् कपिल के सांख्यदर्शन और भगवद्गीता का काल लगभग 400 ई.पू. माना जाता है और इस आधार पर यह माना जाता है कि ये पूर्णकश्यप के आत्म-अक्रियवाद से अवश्य प्रभावित हुए होंगे। कपिल के दर्शन से आत्म-अक्रियवाद के साथ ही ईश्वर का अभाव इस बात का सबल प्रमाण है कि वह किसी अवैदिक श्रमण परम्परा के दर्शन से प्रभावित था और वह दर्शन पूर्णकश्यप का आत्म अक्रियवाद का दर्शन ही होगा, क्योंकि उसमें भी ईश्वर के लिए कोई स्थान नहीं था। सांख्यदर्शन भी आत्मा को त्रिगुणयुक्त प्रकृति से भिन्न मानता है और मारना, मरवाना आदि सभी को प्रकृति का परिणाम मानता है। आत्मा
SR No.006187
Book TitleBhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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