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________________ अनासक्त दृष्टि का एक जीवित प्रमाण है। यद्यपि यह सम्भव है कि अपरिग्रही होते हुए भी व्यक्ति के मन में आसक्ति का तत्त्व रह जाए, लेकिन इस आधार पर यह मानना कि विपुल संग्रह को रखते हुए भी अनासक्त वृत्ति का पूरी तरह निर्वाह हो सकता है, समुचित नहीं है। भगवान् महावीर ने आर्थिक विषमता, भोगवृत्ति और शोषण की समाप्ति के लिए मानव जाति को अपरिग्रह का संदेश दिया। उन्होंने बताया कि इच्छा आकाश के समान अनन्त होती है (इच्छा ह आगास समा अणंतया) और यदि व्यक्ति अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण नहीं रखे, तो वह शोषक बन जाता है। अतः भगवान् महावीर ने इच्छाओं के नियंत्रण पर बल दिया। जैन दर्शन में जिस अपरिग्रह सिद्धान्त को प्रस्तुत किया गया है उसका एक नाम 'इच्छा परिमाण व्रत' भी है। भगवान् महावीर ने मानव की संग्रहवृत्ति को अपरिग्रह व्रत एवं इच्छा परिमाण व्रत के द्वारा नियंत्रित करने का उपदेश दिया है, साथ ही उसकी भोग-वासना और शोषण की वृत्ति के नियंत्रण के लिए ब्रह्मचर्य, उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत तथा अस्तेय व्रत का विधान भी किया है। मनुष्य अपनी संग्रहवृत्ति को इच्छा परिमाण व्रत के द्वारा या परिग्रह व्रत के द्वारा नियंत्रित करे। इसी प्रकार, अपनी भोग वृत्ति एवं वासनाओं को उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत एवं ब्रह्मचर्य व्रत के द्वारा नियंत्रित करे, साथ ही समाज को शोषण से बचाने के लिए अस्तेय व्रत और अहिंसा व्रत का पालन करे। इस प्रकार, हम देखते हैं कि महावीर ने मानव जाति को आर्थिक विषमता और तज्जनित परिणामों से बचाने के लिए एक महत्वपूर्ण दृष्टि प्रदान की है। मात्र इतना ही नहीं, महावीर ने उन लोगों को, जिनके पास संग्रह था, दान का उपदेश भी दिया। अभाव पीड़ित समाज के सदस्यों के प्रति व्यक्ति के दायित्व को स्पष्ट करते हए महावीर ने श्रावक के लिए आवश्यक कर्तव्यों में दान का विधान किया है, यद्यपि हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि जैन दर्शन और अन्य भारतीय दर्शनों में दान अभावग्रस्त पर कोई अनुग्रह नहीं है, अपितु उनका अधिकार है। दान के लिए 'संविभाग' शब्द का प्रयोग किया गया है। भगवान् महावीर ने स्पष्ट रूप से यह कहा कि जो व्यक्ति समविभाग और सम वितरण नहीं करता उसकी मुक्ति सम्भव नहीं है। ऐसा व्यक्ति पापी है। सम विभाग और सम वितरण सामाजिक न्याय एवं आध्यात्मिक विकास के अनिवार्य अंग माने गए हैं। जब तक जीवन में सम विभाग और सम वितरण की वृत्ति नहीं आती और अपने संग्रह का विसर्जन नहीं किया जाता, तब तक आध्यात्मिक जीवन या समत्व की उपलब्धि भी सम्भव नहीं होती। संदर्भ:1. उत्तराध्ययन, 32/8, 2. उत्तराध्ययन-9/48, 3. दशवैकालिक-6/21, 4. धम्मपद 335, 5. उत्तराध्ययनसूत्र-17/11, प्रश्नव्याकरण-2/3/ ***
SR No.006187
Book TitleBhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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