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________________ जहां तक हिंसा के मूल साधनों का प्रश्न है, वे तीन हैं- मन, वचन और शरीर। व्यक्ति सभी प्रकार की हिंसा इन्हीं तीन साधनों के द्वारा करते हैं। क्या पूर्ण अहिंसक होना सम्भव है? जैन विचारणा के अनुसार न केवल पृथ्वी, पानी, वायु, अग्नि एवं वनस्पति ही जीवनयुक्त हैं, वरन् समग्र लोक ही सूक्ष्म जीवों से भरा हुआ है। क्या ऐसी स्थिति में कोई व्यक्ति पूर्ण अहिंसक हो सकता है? महाभारत में भी जगत् को सूक्ष्म जीवों से व्याप्त मानकर यही प्रश्न उठाया गया है। जल में बहुतेरे जीव हैं, पृथ्वी पर तथा वृक्षों के फलों में भी अनेक जीव (प्राण) होते हैं। ऐसा कोई मनुष्य नहीं है, जो इनमें से किसी को कभी नहीं मारता हो। पुनः, कितने ही ऐसे सूक्ष्म प्राणी हैं, जो इंद्रियों से नहीं, मात्र अनुमान से ही जाने जाते हैं, मनुष्य की पलकों के गिरने मात्र से ही जिनके कंधे टूट जाते हैं अर्थात् मर जाते हैं। तात्पर्य यह है कि जीवों की हिंसा से नहीं बचा जा सकता है। प्राचीन युग से ही जैन विचारकां की दृष्टि भी इस प्रश्न की ओर गई है। ओघनियुक्ति में आचार्य भद्रबाहु इस प्रश्न के संदर्भ में जैन दृष्टिकोण को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं-जिनेश्वर भगवान् का कथन है कि अनेकानेक जीव समूहों के परिव्याप्त विश्व में साधक का अहिंसकत्व अन्तस में आध्यात्म-विशुद्धि की दृष्टि से ही है, बाह्य हिंसा या अहिंसा की दृष्टि से नहीं। जैन विचारणा के अनुसार भी बाह्य हिंसा से पूर्णतया बच पाना सम्भव नहीं। जब तक शरीर तथा शारीरिक क्रियाएं हैं, तब तक कोई भी व्यक्ति बाह्य दृष्टि से पूर्ण अहिंसक नहीं रह सकता। हिंसा, अहिंसा का संबंध व्यक्ति के अन्तःकरण से है हिंसा और अहिंसा का प्रत्यय बाह्य घटनाओं पर उतना निर्भर नहीं है, जितना वह साधक की आंतरिक अवस्था पर आधारित है। हिंसा और अहिंसा के विवेक का आधार प्रमुख रूप से आंतरिक है। हिंसा-विचार में संकल्प की प्रमुखता जैन आगमों में स्वीकार की गई है। भगवतीसूत्र में एक संवाद के द्वारा इसे स्पष्ट किया गया है। गणधर गौतम महावीर से प्रश्न करते हैं- हे भगवन्! किसी श्रमणोपासक ने त्रस प्राणी के वध नहीं करने की प्रतिज्ञा ली हो, लेकिन पृथ्वीकाय की हिंसा की प्रतिज्ञा नहीं ग्रहण की हो, यदि भूमि खोदते हुए उससे किसी प्राणी का वध हो जाए, तो क्या उसकी प्रतिज्ञा भंग हुई? इस
SR No.006187
Book TitleBhagwan Mahavir Ka Jivan Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2016
Total Pages178
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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