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________________ १४ ५९. अन्धारिकायामपवारिकायां ततः समागान् अन्येषु सुप्तेषु मुनीशपावें, स एव देवः श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् मुनिभारीमालः । प्रकटीबभूव ॥ सर्प के जाने के बाद मुनि भारमालजी अन्धेरी ओरी में आ गये । जब सभी संत सो गए तब वही सर्प देवरूप में महामुनि भिक्षु के समक्ष प्रकट हुआ । ६०. स्वरूपमावेद्य न्यवीवदत् स, विराजतामत्र महानुभाव || प्राग्भारपुष्यो पफलविना क्व, भवादृशां सत्यदृशां सुयोगः ॥ तब देव ने अपना परिचय देते हुए कहा - 'हे महानुभाव ! आप यहीं विराजें । आप जैसे सत्यद्रष्टा महापुरुषों का योग पूर्वाजित पुण्यफल के बिना प्राप्त नहीं हो सकता ।' ६१. कृतं च सह्यं मम पूज्यपूज्य ! त्वया मुनीन्द्रेण सुरंरुपास्यः । प्रणंणमत् सोऽतिविवेक भक्त्या, विद्योतयन् द्योतितदेहदेशः ॥ ६२. कार्य परिष्ठापनकार्यमंत्र, क्षेत्रे कियत्येव न मन्दिरेऽस्मिन् । विज्ञापनं श्वो भविता तदर्थमित्थं समुल्लप्य तिरोहितः सः ॥ ( युग्मम्) 'आप देवपूज्य और पूजनीय व्यक्तियों के लिए भी पूजनीय हैं । आप मेरे द्वारा किए गए अपराधों के लिए मुझे क्षमा करें ।' यह कहकर उस देव ने परम विवेक और भक्ति से आचार्य भिक्षु को नमस्कार किया और अपने दीप्तदेह से स्थान को प्रकाशित करता हुआ बोला- ' मुनिवर्य ! इस मंदिर के कितने क्षेत्र में परिष्ठापन आदि नहीं करना है, इसकी ज्ञप्ति आपको कल हो जाएगी' - यह कहकर वह देव आंखों से ओझल हो गया । ६३. निषेधरेखां प्रविलोक्य भिक्षुनिरोधयामास परांस्तदर्थम् । प्रातः सजीवानुपलक्ष्य तास्तांश्चित्रीयमाणाः खलु तत्पुरस्याः ॥ 1 प्रातःकाल हुआ । मन्दिर के परिसर में देव द्वारा खींची गई निषेध - रेखा को देखकर आचार्य भिक्षु ने अन्यान्य मुनियों को रेखा के इस पार परिष्ठापन करने का निषेध कर दिया । सूर्योदय के समय पुरवासियों ने संतों को जीवित देखा और वे आश्चर्यचकित रह गए ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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