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________________ सप्तदशः सर्गः २६५ ___ महान् समाधिष्ठ व विशिष्ट योग वाले महामुनि भिक्षु वहीं पर लेट गये । उस समय वे ऐसे लग रहे थे कि मानो थका हुआ शान्तरस विश्राम करने की इच्छा से यहां लेटा हुआ है। २००. न्यूनं न मे स्यावणुमात्रमेतद्, वैराग्यमन्तःस्थितमप्यतः किम् । अन्तर्विवृक्षुर्नयनारविन्दे, ह्यन्तमुखीकृत्य सुखात् स सुप्तः ।। मेरे हृदय स्थित वैराग्य में कोई कमी न आ जाए, ऐसा अन्तर् में देखने की इच्छा से ही मानो भिक्षु मुनि अपने नयन कमलों को अन्तर्मुखी बना सुखपूर्वक सो गए। २०१. मनाक् प्रजाते समयेऽत्र तावत्, स रायचन्द्रषिरवेत्य पावें । भो दर्शनं दर्शनवत् त्वदीयं, मां प्रवेहीति जजल्प जप्यम् ॥ थोड़ा सा समय बीता। इतने में मुनि श्री रायचन्द्रजी ने निकट आकर कहा-'भगवन् ! आपके दर्शन दर्शन (आंख) के समान हैं, अतः मुझे दर्शन दें।' २०२. श्रुत्वैव भिक्षुः शमसिन्धुनेत्रे, निजे समुद्घाटय ऋषि प्रपश्यन् । तन्मस्तके वत्सलतामिपूर्ण, छत्रोपमं स्वीयकरं ररक्ष ॥ भिक्षु ने यह सुनते ही उपषम-सिन्धु के समान अपने दोनों नेत्र खोल, मुनि श्री रायचन्द्रजी की ओर देखते हुए छत्र की तरह अपना हाथ वत्सलतापूर्वक उनके मस्तक पर रखा। २०३. स वैद्यवद् बालकरायचन्द्रः, श्रीस्वामिनां गात्रदशामवेक्ष्य । प्रोचेऽद्य तान् नाथ ! पराक्रमस्ते, क्षयन् सरिद्वेग इवोपलक्ष्यः॥ . वे बाल मुनि रायचन्द्रजी स्वामीजी की शारीरिक अवस्था को देख एक वैद्य की तरह बोले-'अयि स्वामिन् ! अब नदी के उतरते हुए वेग की तरह ही आपका शारीरिक पराक्रम घटता जा रहा है।' २०४. स्वामी निशम्यैव चमत्कृतः सन्, समुत्थितः सप्तमृगेन्द्रवच्च । श्रीमारिमालं मुनिखेतसीजी, तत्कालमाह्वास्त समागतो तो। बाल मुनि रायचन्द्रजी की इस बात को सुनते ही स्वामीजी एकदम चौंक.पड़े और सोये हुए शेर की तरह ही सहसा उठे और तत्काल मुनि श्री भारिमालजी और मुनिश्री खेतसीजी को अपने पास बुला भेजा। दोनों उपस्थित हुए।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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