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________________ २४२ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ६९. तादृग्रहस्यानि जिनेन्द्रपादाम्भोजे स्वयं तेन समपितानि । ... म तत्र किञ्चित् खलु दोषपोषो, ह्यनन्तपारं जिनसूत्रतत्त्वम् ।। - ऐसे रहस्यपूर्ण विषयों को स्वयं उन्होंने तीर्थंकरों के चरणों में 'केवलिगम्य' किया है । ऐसा करने में किसी भी प्रकार से दोष को प्रोत्साहन नहीं मिलता, क्योंकि जिनागमों के तत्त्व अनन्त और अपार हैं । ७०. अर्थोप्यनर्थोस्य तथाविधः स्यात्, तथार्थकारेण विकारभाजा। क्षिप्तालिकायामुपरि स्वबुद्धिश्छेको विवेको निहितो गुहायाम् ॥ परंतु जिन्होंने अपनी बुद्धि को ताक पर रख दिया और शुद्ध विवेक को महन गुफा में डाल दिया, वैसे विकारग्रस्त अर्थकारों द्वारा किये गए अर्थों को मान्य करने पर अर्थ का अनर्थ ही सम्भव है। ७१. न किन्तु तत्स्पष्टसुवेद्यमानाः, दोषाश्च सार्वाय समर्पणीयाः । वार्याः प्रतीकारसहस्रतोपि, सङ्कोचमुन्मूल्य समूलतोऽपि । ....... उनकी दृष्टि में स्पष्ट और आसानी से समझे जाने वाले तत्त्वों तथा दोषों को सर्वज्ञ को समर्पित कर देना अनुचित था। वे कहते-संकोच को छोड़कर सहस्र प्रतिकारों के द्वारा भी दोषों का मूलतः उन्मूलन करना उचित ७२. उपेक्षणीया विदुरन नेत्रे, निमील्य नजे स्फुटभासमानाः । दोषे ह्य पेक्षा ननु दोषपोषसद्धिनी सेवनतोऽपि घोरा ॥ __ वे कहते-स्पष्ट दिखाई देने वाले दोषों के प्रति उपेक्षा कर आंखों को मूंद लेना उपयुक्त नहीं है। दोषों के प्रति उदासीनता (उपेक्षा) रखना उन्हें बढ़ावा देना है और वह दोष-सेवन से भी अधिक भयंकर है। ७३. न्यायापनाशे सुपथस्य नाशे, धर्मस्य नाशे नियमस्य नाशे । साक्षात् सदाचारविचारनाशे, मौनं हि मूर्खस्य विभूषणं स्यात् । जहां न्याय का नाश, सन्मार्ग का नाश, धर्म का नाश, नियम का नाश और साक्षात् सद् आचार व सद् विचार का नाश होता हो तो वहां पर मौन रखना, मूर्ख का ही भूषण है। ७४. सिद्धान्तनाशे वरनीतिरीतिनाशे महाविप्लवताविलासे । वाच्यं पृष्टेऽपि विशा विशवं, सत्यप्रकाशप्रतिपालनाय ॥ सिद्धान्त का नाश तथा उत्तम नीति-रीति का नाश होते ही महान् विप्लवं का साम्राज्य छाये बिना नहीं रह सकता। अतः सत्य के आलोक की सुरक्षा के लिए बिना पूछे ही निस्संकोच रूप से मनुष्य का बोलना उचित है।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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