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________________ २१४ श्रीभिक्षु महाकाव्यम् आहार आदि वस्तुओं का प्रलोभन देकर, भोले भाले बालकबालिकाओं को फुसलाकर तथा प्रपञ्च से अन्यत्र कहीं ले जाकर दीक्षित करते हैं वे शिष्यों के लोभी मुनि अपने मत को बढ़ाने वाले होते हैं । मुनिवेश धारक हैं । उन्हें मुनि कैसे मानें ? केवल १४३. मुण्डितास्तादृशाः किं स्युः, साध्वाचारस्य पालकाः । 'क्लान्ता नानाविधैर्दोषैः, सर्वतोऽपि विडम्बकाः || इस प्रकार दीक्षित व्यक्ति साध्वाचार का पालन कैसे कर सकते हैं ? ये तो साधुत्व के कष्टों से क्लान्त होकर नाना प्रकार के दोषों से जिनशासन की विडम्बना कराने वाले ही होते हैं । १४४. अज्ञायोग्योदरम्भर्यादीनां दीक्षाप्रदायिनाम् । निशीथेकादशोद्देशाद्दण्डः प्रावृषिको मतः ।। अज्ञ, अयोग्य एवं उदरार्थियों को दीक्षित करने वालों को निशीथ के ग्यारहवें उद्देशक में चौमासी दण्ड का प्रायश्चित्त बतलाया है । १४५. बिरक्ताश्चतुरा विज्ञाः, शिष्याः कार्यास्ततोऽन्यथा । एकाकिना विहर्त्तव्यमुत्तराध्ययनाद् ध्रुवम् । इसीलिए विरक्त, चतुर और विज्ञ को ही शिष्य बनाना चाहिए । अन्यथा उत्तराध्ययन के अनुसार गच्छ में एकाकी रहना श्रेष्ठ है । १४६. पश्चात् स्युरयोग्याश्चेच्छिस्यास्तानऽपहाय च । एकाकिना विहर्त्तव्यं, गर्गाचार्यवदात्मना ॥ दीक्षा देने के पश्चात् भी यदि शिष्य अयोग्य निकल जाएं तो उनको छोड़कर गर्गाचार्य की भांति एकाकी विचरना ही श्रेयस्कर है । १४७. मत्पार्श्वे हि त्वया लेया, दीक्षा नापरतस्विति । शपथार्थं यतन्ते ते, साधवो नंव शोभनाः ॥ तू मेरे पास ही दीक्षा लेना, प्रकार शपथ दिलाने का जो प्रयत्न हैं । दूसरों के पास दीक्षा मत लेना - इस करते हैं वे पवित्र संत कैसे हो सकते १४८. तादृग् विधेर्ममत्वं वा, गृहिसंस्तववर्द्धनम् । निशीथे तुयं उद्देशे, प्रायश्चित्तं च मासिकम् ॥ ऐसे रंगढंग से गृहस्थों के साथ ममत्व और परिचय बढ़ता है । अत: निशीथ के चतुर्थ उद्देशक में ऐसे प्रसंग पर मासिक दण्ड का विधान है ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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