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________________ पञ्चदशः सर्गः १५५ ' तब स्वामीजी हंसकर बोले-वह अवसर तो उसी समय था। हम इतने साधु हैं।' १०६. आख्यत् कापि जलस्य भाजनमिदं देयं च पण्यालये, इत्युक्त्वा प्रतिबुध्यते बुधजनः कान्तं निजं दापयेत् । तब्बत् साघविसर्जनानुयुजि तन्मौनं च मिङ्गितं, पुण्यं वाऽघमुदाहरेन्न हि कथं सामान्यतो ह्यन्यथा ॥ कुछ लोग कहते हैं, 'सावद्य दान के विषय में हम मौन रहते हैं । हम ऐसा नहीं कहते कि तू दे । वे इस प्रकार कहते हैं और उसमें पुण्य और मिश्र का प्रतिपादन करते हैं । इस पर स्वामीजी ने दृष्टांत दिया किसी स्त्री ने कहा-यह लोटा हमारी दुकान में दे देना । समझने वाला मन में जानता है कि उसने वह अपने पति को देने के लिए दिया है। इसी प्रकार सावद्य दान के विषय में पूछने पर कहते हैं कि इस विषय में हम मौन हैं । छिपे-छिपे पुण्य और मिश्र का प्रतिपादन करते हैं। समझने वाला जान लेता है कि सावद्य दान के विषय में इनकी पुण्य और मिश्र की मान्यता है । १०७. यत्सामायिकपारणस्य सुमुनियध्यापयेत् पट्टिका, नो तत् पारयतीह कारणमिदं किं स्वामिभिः प्रोच्यते। मुक्तो वर्तत एव सम्प्रति नरस्तत् पारितेऽतो न तत्, दोषालोचनशिक्षणेन च सतां नो दोषपोषो मनाक् ॥ कुछ कहते हैं-साधु सामायिक को पराते नहीं-समाप्त नहीं कराते, तो उसे पूरा कराने का पाठ क्यों सिखलाते हैं ? तब स्वामीजी बोले-साधु सामायिक को पराते नहीं। एक मूहूर्त के लिए सामायिक किया और एक मूहूर्त का काल पूरा होने पर सामायिक अपने आप पूरा हो गया। उसे पारता है, वह तो दोषों और अतिचारों की आलोचना करता है । वह आलोचना भगवान की आज्ञा में है। इसलिए पारने का पाठ सिखलाते हैं किंतु वर्तमान काल में उसे पराते नहीं हैं, क्योंकि सामायिक पूरा करने पर वह उठकर चला जाएगा । इस दृष्टि से पूरा नहीं कराते । परन्तु दोष की आलोचना कराने और उसका पाठ सिखाने में कोई आपत्ति नहीं है।' १. भिदृ० १०२ । २. वही, ६१। ३. वही, २८६ ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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