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________________ पञ्चदशः सर्गः १४९ लेता है। स्वामीजी ने पुनः पूछा-तू उसे क्या परोसती है ? तब वह बोली ---'गुरुदेव ! कभी हलुआ, कभी लपसी परोसती हूं।' ऐसा सुनकर स्वामीजी ने कहा-'ऐसे मालताल परोसने पर वह क्यों कुछ बोले। उसे कभी ठंडी घाट और खट्टी छाछ परोस करके देख और वह न बोले तब पता चले । अयि वृद्ध ! मनोनुकूल स्थिति में कौन खुश नहीं रहता ? पर प्रतिकूल परिस्थिति में अपना संतुलन नहीं खोने वाला कोई विरला ही होता है । १००. कस्यारिन भवेत् तदैहिकपणे दत्वोद्धतं' लोक्यतां, निष्काश्य क्षतिमीक्ष्यतां च सुधिया धर्माऽध्वनि ध्यानतः । इत्थं सद्व्यवहारताप्रवचनं स्याद्वा कथं शोमनं, तूष्णीकत्वमनर्थवढनकर मार्गद्वयेऽप्यर्थतः ॥ लौकिक पक्ष में यदि किसी का कोई बैरी नहीं है तो ऋण देकर देखे । ऋण लेने वाला बैरी बन जाता है। धार्मिक पक्ष में यदि किसी का कोई बैरी नहीं है तो दोष बतलाकर देखे । दोष बतलाने पर वह असहिष्णु होकर बैरी बन जाएगा। इस प्रकार न व्यवसाय चल सकता है और न प्रवचन ही शुद्ध रह सकता है। लौकिक और धार्मिक-इन दोनों पक्षों में जो मौन रहता है, वह मौन अनर्थ को बढ़ाने वाला होता है, क्योंकि ऋण देकर न मांगने पर अर्थ की हानि होती है और धर्म के क्षेत्र में स्खलना की ओर इंगित न करने पर प्रवचन की विशुद्धि नहीं रह सकती।' १०१. कश्चिद् द्रव्यगुरु जगी यदि भवान् ब्रूयात् तदानीमहं, विप्रान् भोजयितुं परो' बहुविधंधूिमचूर्णादिकः। द्रव्याचार्य उदाह नेह लपनं साधोमनाक् कल्पते, श्राद्धोऽवक् प्रभवेत्तदा कयमिह श्रेयः समालोच्यताम् ॥ विरोधियों ने ब्राह्मणों को भिड़काते हुए कहा-'भीखनजी ब्राह्मणों को भोज देने में पाप बतलाते हैं ।' एक व्यक्ति विरोधियों के गुरु के पास जाकर बोला-'यदि आप आज्ञा दें तो मैं गेहूं की रोटियां आदि बना कर ब्राह्मणों को खिलाऊ । मेरी तीव्र इच्छा है।' यह सुनकर द्रव्याचार्य बोले'ऐसी आज्ञा देना हमें नहीं कल्पता ।' तब श्रावक बोला-'जिस कार्य में मुनि को बोलना भी नहीं कल्पता, उस कार्य में धर्म-पुण्य कैसे हो सकता है, आप स्वयं सोचें। १. उद्धृतम्-ऋणम् । २. भिदृ० २११ । ३. पर:-उत्सुक। ४. भिदृ०, ४२।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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