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________________ श्रीभिक्षु महाकाव्यम् जो सावद्य दान में पुण्य-धर्म बतलाते हैं, उन्हें पूछना चाहिए कि इनमें अधिक धर्म किसे हुआ ? धर्म का आराधक कौन बना ?" १३६ ७७. पापं पेषकपाचकाऽऽदक जलाग्न्याद्यर्पकाणां तदा, ह्यामन्त्र्योत्तमभोजकस्य सुकृतं स्याद्वा कथं शोच्यताम् । तत् कृत्स्नाङ्गधृतां स एव दुरिताऽऽविष्कारको मुख्यतो, यस्मात् पापपरम्पराप्रचलनं कस्तत्र धर्मोद्भवः । किसी भाई ने अपने साधर्मिक भाइयों को अपने यहां भोजन करने का, दया पालने का निमंत्रण दिया और घर आकर भोज्य सामग्री की तैयारी करा कर भोजनार्थ आए हुए व्यक्तियों को भोजन कराता है। अब इस प्रकार के भोज में अन्न पीसने वाले को, पकाने वाले को व खाना खाने वाले को पाप लगता है, ऐसा माना जाता है । सिर्फ न्यौता देकर जीमाने वाले को धर्म है, यह कैसे हो सकता है ? यह गम्भीरता से चिंतनीय है । इन सारे पेषण, पाचन और भक्षण आदि पापों का आविष्कारक तो मुख्य रूप से न्यौता देकर जिमाने वाला ही है। क्योंकि उसी से सारी पेषण आदि पापप्रक्रिया का प्रारम्भ होता है । जिससे पाप - परम्परा का प्रचलन होता है, वहां धर्म की उत्पत्ति कैसे ? ७८. चौरं हिंसकमापणस्थमुनिराट् कौशीलिकं चोपकृत्, संसारार्णवतारणैकमनसा धर्मोपदेशं ददौ । तत्राऽजस्य धनस्य रक्षणतया स्यात् सौकृतं चेत् तदा, स्त्री मृत्योरपि पातकं न हि कथं न्यायेकता सर्वगा ॥ ७९. मा मा मारय चोरयोपभजतान् मा मा मृगाक्षी सन- ' "दित्युक्त्या हि न सौकृतं परमिहोद्देश्यं समालोच्यताम् । तद्वक्तृत्वमजादिकाय यदि चेद् रागादिमन्नो शुभं, तेषामात्मशुभाय तद् यदि तदा तीर्थङ्करैः सम्मतम् ॥ ( युग्मम् ) चोरी, हिंसा साधुओं ने चोर, कषायी और व्यभिचारी पुरुष को, और व्यभिचार न करने का उपदेश दिया । उपदेश का लक्ष्य सिर्फ चोर, हिंसक और व्यभिचारी की आत्मा को तारने तथा उन्हें चोरी, जीव-हिंसा और व्यभिचार के पाप से बचाने का था । संतों के उपदेश से प्रभावित होचोरी व जीव - हिंसा का त्याग करने पर धन व बकरे बचे एवं परस्त्री का १. भिदृ० ४४ । २. सनत् सदा ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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