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________________ • मञ्चदशः सर्गः ...९९ वाले ग्राहक आए । तब जो एक व्यापारी शेष- था वह राजी होता है या नाराज?' तब वे बोले-'राजी होता है।' तब स्वामीजी बोले-'तुम कहते हो भीखणजी के श्रावक दान नहीं देते तो जो दान लेने वाले हैं वे सब तुम्हारे ही पास आयेंगे । वह धर्म तुम्हीं को होगा। फिर तुम दुःखी क्यों होते हो और निंदा क्यों करते हो?' तुमको तो हर्षित होना चाहिए।' ऐसा कहकर उन्हें हतप्रभ कर दिया। वे वापस उत्तर नहीं दे सके। ९. दानेऽसंयतिनाऽमघप्रकथनाल्लुण्टाक इत्युक्तिकृत, प्रावाच्याऽयंवरेण पर्युषणके रुद्धं च तत् कः कथम् । अखंव त्वऽहमुद्गतः शृणु नृणां सामायिकादौ च तत्, प्रत्याख्यानकरापणेन किमु नो सन्तस्त्वदीयास्तथा ॥ कुछ लोग स्वामीजी को कहने लगे-'आपने दान दया का लोप कर दिया क्योंकि आप असंयतिदान में पाप कहते हैं।' तब स्वामीजी बोले- 'पर्युषण में कोई याचक को अनाज नहीं देता, आटा नहीं देता। पर्युषण धर्म के दिन हैं । यदि अन्न-दान को धर्म मानो तो उन दिनों में दान देना बंद क्यों किया ? यह बात तो बहुत पुरानी है। उस समय तो हम थे ही नहीं। फिर यह स्थापना किसने की ? तुम्हारे संत भी सामायिक आदि में असंयति को दान देने का प्रत्याख्यान कराते हैं। तो वे भी क्या दान के लोपक नहीं हैं ? '२ १०. श्राद्धानां प्रतिमाधृतां वितरणे किं स्यात्तदा पृच्छक, आचार्यरुदतारि हस्तिगिरयो दृश्या न तस्यैव किम् । कुन्थ्वाद्या नयनाध्वगाश्च भवितुं शक्या अतः शिक्ष्यतां, ज्ञानं तात्त्विकमाद्यमाशु महती चर्चा ततः पृच्छयताम् ॥ कुछ श्रावक बोले-'प्रतिमाधारी श्रावक को शुद्ध दान देने से क्या होता है । तब स्वामीजी बोले- 'कोई किसी को सजीव जल पिलाता है और कंद-मूल खिलाता है, उसमें तुम क्या मानते हो ?' तब वे बोले- हमें तो प्रतिमाधारी श्रावक के बारे में ही बताएं, दूसरी बात तो हम नहीं समझते।' तब स्वामीजी ने दृष्टांत दिया—'कोई बोला, मुझे चींटी और १. भिदृ०, १४६ । २. वही, १४५ ।
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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