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________________ ८८ श्रीभिक्षुमहाकाव्यम् ५६ , प्रकाशं ध्वान्तौघरमृतमतिहालाहलदल घृतं मूत्रश्चिन्तामणिमपशवः काचशकलैः। सुमेरुच्चश्चूला जलधिगतपातालकलशः, समीकर्तुं चेष्टा ननु परमतः श्रीजिनमतम् ॥ जैनधर्म को अन्यमतों के समान करने या बताने की जो चेष्टा है, वह प्रकाश को अन्धकार के समान, अमृत को जहर के समान, घी को मूत्र के समान, चिन्तामणिरत्न को कांच के तुच्छ टुकड़े के समान तथा सुमेरु की उच्चतम चूला को पाताल-कलशों के समान करने या बताने जैसी है । ५७. विधा शुधः शालः समवसरणं भोजिनपति स्त्रिधा भव्यश्छत्रस्त्रिभुवनपतित्वामिकथकः । त्रिधा शक्त्या सम्राट् त्रयपरिषदेन्द्रोतिरुचिरस्त्रिभिर्धर्मः सदृङ्मतचरणरत्नरिह तथा ॥ जैसे तीन सुन्दर कोट से भगवान् का समवसरण, तीन लोक के प्रभुत्व का ख्यापन करने वाले तीन मनोहारी छत्रों से जिनेश्वर देव, तीन शक्तियों से सम्राट् और तीन परिषदों से इन्द्र सुशोभित होता है वैसे ही सम्यक् दर्शन, सम्यग् ज्ञान एवं सम्यग् चारित्र-इस त्रिपदी से जिनधर्म शोभित होता है। ५८. यतस्तत्वालोकः प्रभवति यतो रुध्यति मनो, यतो ह्यात्मौनत्यं सततमखिलमव्यममलम् । विरज्यन्ते रागा यत उदितसच्छ यसि रतिविवोध्यं तज्ज्ञानं जिनवरमते संस्कृतिरते ॥ संस्कृति से युक्त जैन मत में वह ज्ञान जानने योग्य होता है जिससे तत्त्वों पर प्रकाश पड़ता हो, जिससे मन का निरोध होता हो, जिससे आत्मा की उन्नति होती हो, जिससे समस्त प्राणियों के साथ निरन्तर निर्मल मैत्रीभाव होता हो, जिससे राग दूर होते हों और जिससे उत्कृष्ट श्रेय (मोक्ष) में अनुरक्ति होती हो। ५९. क्वचित् किञ्चित् सत्यं जिनववऽपरत्रापि लसति, परं नो तत् तत्त्वात् प्रकृतिविकृते१र्णयवशात् । बहिर्दृष्ट्या तुल्येप्यशठशठयोमिष्टलपने, महान् भेदः किं नोमयसक्सवन्तःकरणतः ॥
SR No.006173
Book TitleBhikshu Mahakavyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathmalmuni, Nagrajmuni, Dulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1998
Total Pages308
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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