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________________ 18/जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन "दारा इवारात्पदवाच्यमेकमनेकमप्येतितरां विवेकः । समस्तु वस्तुप्रतिरूपवेशमुद्वोधनायास्त्वथवैकशेषः॥129 ऐसे ही श्लोक संख्या अट्ठासी भी देखा जा सकता है - अद्वैतवादोऽपरिणामभृत्स्याददृष्ट हृददृष्ट विरोधकृत्स्यात् ।। किं यातु सेतुं च तदीयहेतुर्विरुद्धता द्वीपवतीभरे तु ॥130 अद्वैतवाद जो परिणामवादी नहीं है अपितु विवर्तवाद को स्वीकार करता है, उसमें अदृश्य का दृश्य से विरोध प्रतीत होता है । द्वीपस्थली के लिये कौन सा पुल हो सकता है ? आगे के श्लोक संख्या में इसी का निर्वाह दिखाया गया है - "भावैकतायामखिलानुवृत्तिर्भवेदभावेऽथ कुतः प्रवृत्ति । यतः पटार्थी न घटं प्रयाति हे नाथ ! तत्त्वं तदुभानुपाति ॥1 एकता की भावना में सबकी अनुवृत्ति हो जाती है । भव और भाव में कहाँ से प्रवृत्ति हो सकती है ? क्योंकि कपड़े को चाहने वाला जहाँ घट रहता है, वहाँ नहीं जाता है। हे प्रभो ! यही यथार्थ तत्त्व प्रतीत होता है। ऐसे ही अधोलिखित पद्य में अंशांशी भाव का संकेत किया गया है-- "अंशीह तत्कः खलु यत्र दृष्टिः शेषः समन्तात्तदनन्य सृष्टिः । स आगतोऽसौ पुनरागतो वा परं तमन्वेति जनोऽत्र यद्वाक ॥132 ___ अंशी यहाँ कौन है ? जहाँ दृष्टि पड़ती है, वहाँ शेष (अंश) ही सर्वत्र प्रतीत होता है । अतः सृष्टि उससे भिन्न नहीं है । वह आया अथवा पुनः पुनः आया परन्तु जन वर्ग उसी से ही सम्बन्ध करता है । उससे भिन्न का बोध नहीं होता । जैन सिद्धान्त में अणुवाद ने आत्मा के अनेकत्व को स्वीकार किया है । इसलिये अद्वैतवाद का विरोध होने से आत्मा के नित्यैकत्व के खण्डन में छब्बीसवें सर्ग का इक्यानवें श्लोक दिया गया है - .. नित्यैकतायाः परिहारकोऽब्दः क्षणस्थितेस्तद्विनिवेदि शब्दः । . सिद्धोऽधुनार्थः पुनरात्मभूप ! संज्ञानतो नित्यतदन्यरूपः॥133 नित्यत्व और एकत्व का बाधक क्षण से आरम्भ कर बनने वाला अब्द अर्थात् वर्ष है । एक ही व्यक्ति कभी बालक एवं कभी राजा भिन्न उपाधियों से नियुक्त होने से भिन्न रूप में समझा जाता है न कि एक ही रूप में ग्रहण किया जाता है । अमरकोश आदि के आधार से आँख के बन्द करने और खोलने को निमेष कहा गया है । अट्ठारह निमेष की एक काष्ठा होती है । तीस काष्ठाओं की एक कला होती है । तीस कलाओं का एक क्षण होता है । बारह क्षणों का एक मुहुर्त होता है । तीस मुहुर्त का एक अहोरात्र होता है। पन्द्रह अहोरात्र का एक पक्ष एवं दो पक्षों का एक मास । दो-दो मास की एक ऋतु बनती है
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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