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________________ 16/जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन सुलोचना का मुख द्विजराज चन्द्र से भी अधिक प्रभाशील है, जिसकी वाणी अनन्य अद्वैत सदृश है । अतएव वैसे ही आदरणीय है जैसे 'एक ब्रह्म द्वितोयो नास्ति' इत्यादि कथन ब्रह्म से अतिरिक्त कुछ भी नहीं है इस वचन से सम्पन्न सबसे मुख्य एवं समादरणीय है इसलिये जिस सुलोचना के मुख ने कामदेव के बाणों को उपदेश दिया उन्हीं बाण और उपदेश का द्विज पिक, कोकिल (ब्राह्मण) सदबुद्धि से शुद्धिपूर्वक अभ्यास करें। यह बात इस श्लोक में कही गयी है । यहाँ सुलोचना की अद्वैत वाणी को अद्वैत दर्शन के समान बताया गया .. दार्शनिक सिद्धान्तों का अधिकांशतः स्वरूप जयोदय के सर्ग संख्या छब्बीस में मिलता है । जहाँ जयकुमार के पुत्र अनन्तवीर्य का राज्याभिषेक ततः आदितीर्थनाथ की वन्दना की गयी है । ऐसे समुचित स्थल पर दार्शनिक विवेचन पर कवि ने पूर्ण दृष्टिपात किया है । यथा अभेदभेदात्मकमर्थमहत्तवोदितं सम्यगिहानुविन्दन् । शक्नोमि पत्नीसुतवन्न वस्तुं किलेह खड्नेन नभो विभक्तुम् ॥124 यहाँ भेद सहिष्णु अभेद का वर्णन दिखाते हुए कहा गया है कि जैन सिद्धान्त को . उपास्य हे अर्हन् देव ! तुम्हारे द्वारा कहे हुए भेद सहिष्णु अभेदात्मक सिद्धान्त को मैं किस प्रकार कहने में समर्थ हो सकता हूँ ? जिस प्रकार तलवार से आकाश का विभाजन नहीं हो सकता, वैसे ही पत्नी पुत्रादि का भी भेद करने में मैं समर्थ नहीं हूँ अर्थात् चेतनांशतः सब एक हैं। इसी प्रकार अग्रिम श्लोक में भी सदसद् विलक्षण स्वरूप का वर्णन किया गया है, जो अवलोकनीय है "तत्त्वं त्वदुक्तं सदसत्स्वरूपं तथापि धत्ते परमेव रूपम् । युक्ताप्यहो जम्भरसेन हि द्रागुपैति सा कुङ्कुमतां हरिद्रा॥125 अर्थात 'तत्त्वम् ' पदार्थ सूक्ति में रजत का भान भी सदसद् विलक्षण है । रजतार्थी सूक्ति को रजत समझकर उठाने के लिये प्रवृत्त होता है। उठाने के पश्चात् 'नेदं रजतम्'-यह रजत नहीं है, ऐसा ज्ञान होता है । विचारणीय यह है कि पूर्ववर्ती पदार्थ जिसको द्रष्टा ने रजत समझा पुनः रजत नहीं है, ऐसा ज्ञान क्यों हुआ ? रजत बुद्धि में रजताभाव का बोध विरुद्ध है। यदि यह कहें कि रजत है और नहीं भी है तो भी 'अस्ति नास्ति' की उभयात्मक स्थिति कथमपि सम्भव नहीं है । अतएव सत्य रजत और मिथ्या रजत इन दोनों से भिन्न सदसद् विलक्षण अनिर्वचनीय पदार्थ माना गया । ऐसे ही 'तत्त्वमसि' वाक्य में 'तद्' पदार्थ परोक्षत्व विशिष्ट चैतन्य का बोधक है। त्वम्' पदार्थ अपरोक्षत्व विशिष्ट चैतन्य का बोधक है । परोक्षत्वामपरोक्षत्व उभयात्मक विरुद्ध ज्ञान एक पदार्थ में कथमपि सम्भव नहीं है परन्तु परोक्षत्व एवं अपरोक्षत्व उपाधि का त्याग कर देने से चैतन्यांश मात्र शेष रहने पर कोई विरोध नहीं होता है इसलिये यह कथन समुचित
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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