SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 43
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम अध्याय /11 से शुक्रग्रह कहा गया है । शास्त्रों में शुक्र का वर्ण श्वेत दिया गया है । योद्धाओं के शरीर से बहता हुआ रक्त (रक्त वर्ण मंगल) भूमि पर व्यक्त हो रहा था । योद्धाओं के शब्द गुरु फैलते हुए (गुरु ग्रह) के रूप में थे । मस्तक विहीन योद्धाओं का कबन्ध उछल रहा था जो केतु का काम कर रहा था । मरे हुए योद्धाओं के मुख पर अन्धकार विद्यमान था जो राहु रूप में प्रतीत हो रहा था । चमकते हुए खड्ग कान्तिशाली चन्द्रमा का काम कर रहे थे एवं हाथियों के समूह से व्याप्त सेना समूह (कटक) धीरे-धीरे चलने के कारण शनैश्चर ग्रह बन रहा था । अन्त में मरण स्वरूप पन्द्रह तिथियों का स्मरण हो रहा था । रणभूमि में क्षत्रिय गण पलायन करने वाले नहीं थे अतः 'नक्षत्रलोपो नवत्रिकाख्यः' अर्थात् क्षत्रिय लोग वहाँ से न हटने के कारण नक्षत्र मण्डल ही बना हुआ था। कहीं पर पराग राग से रहित होना एवं कहीं पर ग्रहण अर्थात् चन्द्रग्रहण क्रोध से लालिमा एवं धर पकड़ होती थी जो ग्रहण का स्मरण कराती थी । इस प्रकार यह युद्ध स्थल खगोल के रूप में परिपूर्ण दिखाया गया है जो ज्योतिष शास्त्र की विज्ञता का परिचायक है । एष दर्शः सूर्येन्दुसंगमः' की स्थिति को युद्धस्थल में अर्ककीर्ति एवं जयकुमार के समागम वर्णन प्रसङ्ग में किया गया है जो दर्शनीय है - "सोमाङ्गजप्राभवमुद्विजेतुं सपीतयोऽर्कस्य तदाऽऽनिपेतुः । स एष सुर्येन्दुसमागमोऽपि चिन्त्यः कुतः कस्य यशो व्यलोपि ॥14 अमावस्या के दिन सूर्य और चन्द्रमा का समागम होता है, जिसमें सूर्य के द्वारा चन्द्र के दब जाने से अन्धकार छा जाता है । इस युद्ध में अर्ककीर्ति को सूर्य एवं सोमपुत्र जयकुमार को चन्द्र बनाया गया है। इन दोनों का युद्ध स्थल में समागम लोगों अर्थात् दर्शकों के लिये चिन्ता का विषय बन गया है कि देखें किसका यश लुप्त होता है । परन्तु शास्त्र प्रसिद्धि के अनुसार चन्द्र का यश ही नष्ट होता है । प्रकृत महाकाव्य में चन्द्र का यश नष्ट न होकर अर्ककीर्ति रूप सूर्य के ही यश को नष्ट दिखाया गया है । यह अपूर्वता का परिचायक है जो कवि-प्रतिभा का द्योतक है। . .. ऐसे ही इसी सर्ग के निम्न श्लोक में अर्ककीर्ति रूप सूर्य पर लगे हुए ग्रहण का वर्णन किया गया है । यथा - "रथसादथ सारसाक्षिलब्धपतिना सम्प्रति नागपाशबद्धः । शुशुभेऽप्यशुभेन चक्रितुक तत्तमसा सन्तमसारिरेव भुक्तः ॥15 - अर्थ यह है कि जयकुमार ने अर्ककीर्ति को नागपाश से बाँधा और अपने रथ में डाल दिया, जिससे प्रतीत होता है कि नागपाश रूप राहु द्वारा अर्ककीर्ति रूप सूर्य भी आक्रान्त . हुआ है। इसी प्रकार इस महाकाव्य में अनेकशः स्थलों में ज्योतिष-विषयक सिद्धान्तों के वर्णन
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy