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________________ प्रथम अध्याय /9 किया गया है जो ज्योतिष का पारिभाषिक शब्द है जिस समय सप्तमेश और द्वितीयमेश की महादशा और अन्तर्दशा चलती है उस समय मारकेश की दशा मानी जाती है तथा मारकेश ग्रस्त व्यक्ति हितावह पथ्य ग्रहण नहीं करना चाहता है इसी दृष्टि को लेकर यहाँ कवि ने अपना मन्तव्य व्यक्त किया है - "मारके शदशाविष्टोऽवमत्य श्रीमतामृतम्। प्रत्युतोदग्रदोषोऽभूद् भुवि ना मरणाय सः ॥18 इसी प्रकार उक्त श्लोक से अव्यवहित श्लोक संख्या 54 भी देवज्ञता का परिचायक है - "यः कालग्रहसद भावसहितोऽत्र समाहितः । योगवाह तयाऽन्योऽपि बुधवत् कू रतां श्रितः ॥" जिसका तात्पर्य है कि शेषाविष्ट अर्ककीर्ति का सम्पर्क होने से सद्बुद्धि सम्पन्न भी उसके संपर्क में आने वाले लोग क्रूर बन गये अर्थात् अर्ककीर्ति के पक्ष में आ गये जिस प्रकार पाप ग्रह के योग से बुध भी उसके समान हो जाता है । बुध पापग्रह के योग में तद्वत् ही हो जाता है । अतः कवि का यह कथन भी उसके ज्योतिर्विद् होने का अच्छा प्रमाण सुलोचना के द्वारा सभा में विद्यमान अनेक राजकुमारों को देखकर यह व्यक्त किया गया है कि यहाँ अनेक शूरवीर बुद्धिमान् कवि महान वक्ता मंगल चाहने वाले उपस्थित हैं। किन्तु इनमें सौम्य मूर्ति चन्द्र ग्रह जय कुमार कौन है जो मेरी प्रसन्नता का आधार है, जिसके लिये मैं शनिश्चर बन रही हूँ । सभा भवन को ख मण्डल रूप में व्यक्त किया गया है जिसमें श्लिष्ट रूपक के माध्यम से शूर (सूर्य) बुध (बुध ग्रह) कवि (शुक्र ग्रह) गीरीश्वर से वृहस्पति एवं मंगल पद से मंगल भी ग्राह्य है। सौम्य मूर्ति से चन्द्रमा एवं अन्वेषण करने की दृष्टिकोण से धीरे-धीरे चलने वाली स्वयं सुलोचना शनैश्चर बन रही है । शनैश्चर मन्द गामी ग्रह है एवं इसकी जिस पर दूर दृष्टि पड़ती है सुख भागी नहीं हो सकता । इस प्रकार ज्योतिष शास्त्र के ग्रह गुणों पर भी ध्यान दिया गया है जो महाकवि के शब्दों में अवधेय है - "शूरा बुधा वा कवयो गिरीश्वराः सर्वेऽप्यमी मङ्गलतामभीप्सवः । कः सौम्यमूर्तिर्मम कौमुदाश्रयोऽस्मिन् सङ्ग्रहे स्यात्तु शनैश्चराम्यहम् ॥'no स्वयंवर वर्णन प्रसङ्ग में विद्यादेवी एक राजा का परिचय देती हुई निम्न श्लोक में यह व्यक्त करती है । यथा "वाणीति सदानन्दा भद्रा कीर्तिश्च वीरता विजया । रिक्तार्थिका स्ति लक्ष्मीः पूर्णा त्वं ज्योतिरीशस्य ॥1.
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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