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________________ 188/ जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन (क) “अपि हठात् परिषज्जनुषां मुदः स्थलमतिव्रजतीति विधुन्तुदः ॥"115 (ख) "ननु तेन हि सन्धयेऽर्पिता कुवलालीस्वकुलक मेहिता ॥116 (ग) “हीरवीरचितास्तम्भा अदम्भास्तत्र मण्डपे ॥117 (घ) “स्वजनसज्जनयोः परिचारक चिरत् आव्रजसि क्व शयानकः ॥"718 उक्त श्लोक चरणों में क्रमशः 'परिषद्', 'कुवलाली', 'अदम्भ' और 'चिरत्' शब्द का प्रयोग 'पत', 'मौक्तिकमाला', 'विशाल' और 'चिरात' के अर्थ में प्रयोग हुआ है, जो अप्रयुक्त दोष से शून्य नहीं है। इसी प्रकार 'कुसुमांजलिः' शब्द का प्रयोग स्त्रीलिङ्ग में किया गया है जबकि कोष में 'अंजलिर्ना' इस उक्ति से पुल्लिङ्ग में ही प्रयोग होना चाहिए । अतएव यह लिङ्गदोषग्रस्त इस महाकाव्य में अनेक सों में कतिपय श्लोकों का कुछ पद ही नहीं है । यथा'अभात्तमां पीततमा हि दीपैविक स्वर............। गतस्तटाकान्तरमाशु हंसस्त्यक्त्वामुकं पुष्करनामकं सः ॥"119 उक्त स्लोक में द्वितीय चरण अब भी विकल है। सर्ग पच्चीस के श्लोक अट्ठासी में जो पद्य कहा गया है, उसकी सर्ग की समाप्ति होने पर भजनावली के पंचम श्लोक के द्वारा पुनरावृत्ति कर दी गयी है । वह श्लोक निम्न प्रकार है "यदुपश्रुतिनिर्वृतिश्रिया कृतसके त इवाथ कौ धियां । विजनं हि जनैकनायकः सहसैवाभिललाषचायकः ॥'120 4. छन्दोभङ्गता : प्रकृत महाकाव्य में छन्दोभङ्गता भी अपना स्थान बनाये हुए है। जैसे "कल्पवल्लिदलयोः श्रियं तयोः सद्योजात्फलोपलम्भयोः । पाणियुग्ममपि चक्रिणो जयत्तच्छिरोमृदुगिरोऽभ्युदानयत् ॥121 उक्त पद्य में द्वितीय चरण में छन्दोभङ्ग है । ऐसे ही आगे श्लोक में भी यह कमी है"उपलम्भितमित्यथोपकर्तुं हृदयेनाभ्युदयेन नामभर्तुः । उदयदिवोदयभूभृतस्तटे तच्छशिबिम्बं जयदेवव क्रमेतत् ॥1122 यहां भी द्वितीय चरण विकल है । 5. च्युत संस्कृति : इसका उदाहरण न्यून है फिर भी यत्र-तत्र प्राप्त हो जाता है, जो अवलोकनीय है "अहो महत्त्वं महतामिहे दं सहन्ति शीतातपनामखेदं । द्रुवत्परेषां स्थितिकारणाय सदैव येषां सहजोऽभ्युपायः ॥"123 प्रकृत पद्य में 'सहन्ति' पद के स्थान पर 'सहन्ते' प्रयोग करना उचित है, किन्तु ऐसा
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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