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________________ 176/जयोदय महाकाव्य का समीक्षात्मक अध्ययन सूर्य समुद्र में गिर रहा है । मत्त भ्रमर इस समय कमलकोश में पड़ा है । पक्षी आनन्द स्थान वृक्ष के घोसले में जा रहे हैं । कामदेव धीरे-धीरे सुन्दरियों के हृदय में उबद्ध हो रहा है। यह सम्पूर्ण सायंकालिक वर्णन अवसर पर दिया गया है । इसलिये कालौचित्य है । इसी प्रकार बहुशः पद्य हैं जो कालकृत औचित्य के परिचायक हैं । 14. देशौचित्य : आचार्य क्षेमेन्द्र ने देशौचित्य के निरूपण में लिखा है कि जिस प्रकार पूर्व परिचय का सूचक है, सज्जनों का व्यवहार शोभा को प्राप्त होता है, उसी प्रकार हृदय भावना के अनुरूप देशौचित्य की महिमा से काव्यार्थ उत्कृष्टता को प्राप्त होता है | जयोदय महाकाव्य के बीसवें सर्ग में अयोध्या स्थली का वर्णन देशौचित्य का पूर्ण परिचायक है । जैसे "वहुधावलिधारिणी स्रवन्ती नितरां नीरदभावमाश्रयन्तीम् । जयराट्जरतीतिनामवोध्यां द्रुतमुलंध्य जगाम तामयोध्याम् ॥ यहां अयोध्या का वर्णन है । उसके प्रसङ्ग में नदी का वर्णन देशौचित्य है इसी प्राकर आगे के श्लोकों में यह औचित्य दर्शनीय है - "स्वमुपपयोधरदेशं चलदुज्वलध्वजनिवसनविशेषम् । त्रपयेव वोन्नयन्तीं त्रियाखिलं विश्वमपि जयन्तीम् ॥67 "प्रणयातिशयाय पश्यताथ बहू त्तानशयोपलक्षिताम् । मह तीमनुजानताक्षितावपि विश्रम्भपरायणां हिताम् ॥68 यहाँ पर प्रासार भवन आदि का विलक्षण वर्णन किया गया है । यह अयोध्या सतयुग से ही पुराणादि में वर्णित है । हरिशचन्द्र आदि प्रमुख राजा यहाँ विख्यात रहे हैं । आज भी इसकी स्थिति तद्वत दिखायी देती है । भरत के शासन काल में कवि ने वैसे ही इसका स्वरूप दिखाया है । अतएव यह देशौचित्य के दृष्टि से अत्यन्त रम्य है । 15. कुलौचित्य : कुलौचित्य के विषय में आचार्य क्षेमेन्द्र अट्ठाइसवीं कारिका में कहा है कि जिस प्रकार सद्वंश का सम्बन्ध मनुष्यों की महती उत्कृष्टता का कारण होता है, उसी प्रकार कुलौचित्य अर्थात् कुल के अनुरूप वर्णन काव्य की उत्कृष्टता का कारण सहृदय हृदयाभिमत होता है । जयोदय महाकाव्य के 28वें सर्ग में इसका दिग्दर्शन मिलता है । "आश्रमात आश्रमं गच्छेत्" इसी पद्धति के अनुसार मनुष्यों को विषय वासनाओं के भोगानन्तर यथार्थ तत्त्व के परिज्ञान में तत्पर होना चाहिये । जयकुमार भी इस सिद्धान्त का परिपालक बना । __यह पहले ही कहा जा चुका है कि जयकुमार हृदय को दूषण से मुक्त करने के लिये राजकार्य का परित्याग कर गुरु कृपावश तपस्वी वन कर अर्हन् देव के पास पहुँचा और तपश्चर्या
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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