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________________ सप्तम अध्याय / 171 है ? परन्तु जयकुमार ने अपने भुजाओं से समस्त जीवों को आक्रान्त कर प्राणनियन्त्रण हेतु यत्न किया । यहाँ 'सः' यह कर्तृपद दुर्नियन्त्रण को नियन्त्रित करने हेतु उचित रूप में प्रयोग किया गया है अतएव कर्तृपदौचित्य है । (ब) कर्म पदौचित्यः कर्मपदौचित्य का उदाहरण जैसे 'जम्पत्योर्यन्निशि च गदतोश्चाश्रणोद् हीणा गत्वा तदुनवतदः श्रीपादानान्तु कर्णान्दूकारुणमणिकणं तस्य चञ्चौ निधाय, तं करक फलक व्याजतः सान्निनाय ।। "46 मूकत्वं इस श्लोक में कमौचित्य की योजना अत्यन्त मनोरंजक एवं चित्ताकर्षक है । इसमें यह वर्णन किया गया है कि रात्रि में दम्पत्ति के रतिकालिक परस्पर वार्तालाप को गृह पालतू तोता ने जो सुना श्रीपद के तटप्रदेश पर उसके द्वारा उस रहस्य के उद्घाटन होने से लज्जित हुई । एक नायिका ने तोते के मुख को बन्द करने के लिये लाल मणि के टुकड़े को अनार फल के बहाने उसके चोंच में रख दिया । रहस्यमय बात को छिपाने के लिये चोंचों में अनार के दाने को व्याज से मणि कण को रखकर मूक बनाना कर्णौचित्य का अच्छा उदाहरण और कवि की अपूर्व प्रतिभा का परिचायक है । 44 गेहकीर:, तीरम् । (स) करणौचित्य : जयोदय महाकाव्य में करणौचित्य की कमी नहीं है। एक उदाहरण जैसे - 1147 " वधुमुखेन्दोः स्मित चन्द्रिकाचयैर्जयस्य नक्तं च दिवा च भूपतेः । स्वयं प्रजायाः कुशलानुचिन्तनैर्बभूव तावत्समयः समन्वयः ॥ इस श्लोक में जयकुमार की दिनचर्या का वर्णन करते हुए यह बताया गया है कि नृपति जयकुमार सुलोचना वधू के मुख चन्द्र की मुस्कराहट रूप ज्योत्सना मण्डल से रात्रि का समय व्यतीत करता था एवं प्रजा के स्वयं कुशलानुचिन्तन के द्वारा दिन व्यतीत करता था । इस प्रकार उसने समय का सम्यक् समन्वय किया था । यहाँ स्मित चन्द्रिकाचय तथा प्रजाकुशलानुचिन्तन के द्वारा समय व्यतीत करने को करणरूप में बताया गया है, जो उचित करणौचित्य को निष्पन्न करता है । (द) सम्प्रदानौचित्य : सम्प्रदानौचित्य के लिये भी सब सर्गों में सर्वत्र स्थान है । जैसे'अस्या हि सर्गाय पुरा प्रयासः परः प्रणामाय विधेर्विलासः । स्त्रीमात्रसृष्टावियमेव गुर्वी समीक्ष्यते श्रीपदसम्पदुर्वी ।। 48 44 जिस समय जयकुमार सुलोचना के स्वरूप को देखता है, उस समय मन में नाना प्रकार के भाव उत्पन्न होते हैं । इसी विचारधारा में जयकुमार के ये विचार हैं कि इसकी सृष्टि
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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