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________________ सप्तम अध्याय / 165 अर्ककीर्ति के मिलन प्रसङ्ग में शान्त की अनुपम छटा दर्शनीय है"जयमहीपतुजोर्विलसत्त्रपः सपदि वाच्य विपश्चिदसौ नृपः । कलितवानितरे तरमेकतां मृदुगिरो ह्यपरा न समार्द्रता || "अ 138 यहाँ बोलने में पटु एवं बुरी बात से शर्मिन्दा काशिराज अकम्पन ने जयकुमार और अर्ककीर्ति में अपनी मधुर गिरा के द्वारा ही परस्पर की प्रतिद्वन्दिता को समाप्त कर आपस में मेल करा दिया । सत्य है, मधुर वाणी के समान सम्मिलन कराने वाली कोई दूसरी वस्तु नहीं है । रसौचित्य के उदाहरण में शृङ्गार रस का उदाहरण अवधेय है " मुखारविन्दे शुचिहासके शरेऽलिवत्स मुग्धो मधुरे मृगीदृशः । प्रसन्नयोः पादसरोजयोर्दृशं विशेष्य पद्मापि जयस्य सम्बभौ ।। "39 मृगनयनी सुलोचना के मधुर कान्ति, शुभ्रहास्यपूर्ण मुख कमल रूपी बाण से भ्रमर के समान जयकुमार वशीभूत हो गया । ऐसे ही सुलोचना भी उसके निर्मल चरण कमलो में अपने नेत्र से देखती हुई सुशोभित हुई । यहाँ शृङ्गार रस का पूर्ण औचित्य है । वीररसौचित्य के सन्निवेश में कवि को मस्तक नहीं खुजलाना पड़ता है । जिधर देखते हैं, उधर ही तदनुरूप पर्याप्त रचना दृष्टिगत होती है यथा " परे रणारम्भपरा न यावद् बभुश्च काशीशसुता यथावत् । निष्क्रष्टुमागत्यतरा मितोऽघं हेमाङ्गदाद्या ववृषुः शरौघम् ।। ' 140 समराङ्गण में युद्धार्थ उद्यत सेनाओं को देखकर काशी नरेश के पुत्र हेमाङ्गद आदि आक्रामक उपद्रव को दूर करने के लिये शीघ्र ही पहुँचकर वाण पंक्तियों की वर्षा करने लगे । प्रकृत पद्य में 'रणा' 'निष्क्रष्टुम् ' 'ववृषु' आदि पद ओज गुण के पोषक होकर वीर रस में योगदान प्रदान करते हैं । इसी प्रकार इसी सर्ग का अधोलिखित पद्य रसौचित्य के लिये विवेचनीय है - " भिन्नारिसन्नाहकुलान् रफुलिङ्गानसिप्रहारैरुदितान् कलिङ्गा । स्फुरत्प्रतापाग्निकणानिवाऽऽहुर्जयस्य यः स प्रचलत्सुबाहुः || ' 1141 कुशल योद्धाओं के खड्ग प्रहार से शत्रुओं के विदीर्ण कवच मण्डल से चिनगारियाँ (अग्निकण) उत्पन्न हो रही थीं। वे बलशाली बाहु से प्रयोग किये गये जयकुमार के दीप्यमान् प्रतापाग्नि कण को बता रहे थे। प्रकृत पद्य में अधिकांश समस्त पद का सन्निवेश 'न' 'न' का संयुक्ताक्षर एवं ‘स’'फ' प'र' आदि संयुक्त प्रयोग पूर्णरूपेण वीर रसौचित्य के परिचायक हैं ।
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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