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________________ सप्तम अध्याय / 163 अपार्थ दोष के विषय में दण्डी का कथन है कि समुदाय रूप से अर्थ शून्य प्रयोग अपार्थ कहे जाते हैं किन्तु वे ही यदि उन्मत्त, मत्त अथवा बालक आदि के प्रयोग में हों तो दोष न होकर काव्योपयुक्त बन जाते हैं । इस प्रकार उनके अनुसार दोष किसी विशेष परिस्थिति में ही होते हैं । यदि वे परिस्थितियाँ हटा दी जाय तो दोष न होकर वहाँ गुण बन जाता है। इसी प्रकार कान्यकुब्ज के अधिपति यशोवर्मा के भी समर्थन मिलते हैं । उन्होंने अपने रामाभ्युदय नाटक में प्रकृत श्लोक प्रस्तुत किया है - "औचित्यं वचसां प्रकृ त्यंनुगतं सर्वत्र पात्रोचिता, पुष्टिः स्वावसरे रसस्य च कथामार्गे नचातिक मः । शुद्धिः प्रस्तुतसंविधानक विधौ प्रौढिश्च शब्दार्थयो, विद्वद्भिः परिभाव्यतामविहितै रेतावदेवास्तु नः ॥” संभवतः इसी नाटक से भोजराज ने भी शृंगार प्रकाश में यह श्लोक उद्धृत किया है। ध्वन्यालोक तृतीयोद्योत में "कथामार्गेन चाति क्रमः" इस पंक्ति पर लोचनकार की टिप्पणी से भी उक्त श्लोक यशोवर्मा का ही प्रतीत होता है । आचार्य रुद्रट ने भी अपने काव्यालङ्कार में औचित्य का विवेचन अत्यन्त सूक्ष्म रूप से किया है । अलङ्कारों का सन्निवेश रस के साथ किस प्रकार होना चाहिए, इस सम्बन्ध में उक्त ग्रन्थ के द्वितीय अध्याय के बत्तीसवें पद्य से ऐसा कहा है कि- काव्य में औचित्य के आधार पर ही अलङ्कारों का सन्निवेश यथार्थ हो सकता है ।। ___ इसी प्रकार आनन्दवर्धनाचार्य ने भी औचित्य पर पूर्णबल दिया है । आवश्यकतानुसार अलंकारों का समय पर ग्रहण एवं समय पर त्याग करना चाहिए । अतएव अनपेक्षित का त्याग एवं अपेक्षित का उपादान करने के लिये किसी अंश में शास्त्रीय सिद्धान्त का त्याग एवं चमत्कार लाने के लिये कल्पित अंश का सन्निवेश करना भी उचित माना गया है । जो ध्वन्यालोक के संघटना निरूपण प्रसङ्ग में दिखाया गया है । औचित्य प्रदर्शन में रस के औचित्य पर ही अन्य सब पदार्थ आधारित हैं, जो ध्वन्यालोक के तीसरे उद्योत की छठवीं कारिका से व्यक्त है । विभावादि औचित्य विनिबन्धन के साथ-साथ काव्य में अङ्ग का अति विस्तार अङ्गी का अनुसन्धान न करना अनङ्ग का कथन प्रकृति विपर्यय आदि दोष अनौचित्य पर ही आश्रित हैं । इन अंशों को कहकर तृतीयोद्योत में ही अनौचित्य ही रस का परम विघातक है और जिस प्रकार ब्रह्म का साक्षात्कार उपनिषद के कहे हुए साधनों से माना गया है, उसी प्रकार
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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