SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 183
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ षष्ठ अध्याय /151 भावोदय, भाव-शान्ति, भाव-सन्धि, भाव-शबलता आदि भेद होते हैं । असंलक्ष्य क्रम व्यङ्गय ध्वनि पदगत, पदाशगत, वर्ण रचना प्रबन्ध गत भी होता है | संलक्ष्यक्रम व्यङ्गय - (1) शब्द शक्त्युत्थ (2) अर्थशक्त्युत्थ (3) शब्दार्थोमय शक्त्युत्थ के भेद से तीन प्रकार का कहा गया है । शब्दशक्त्युत्थ - (1) वस्तु ध्वनि (2) अलंकार ध्वनि के भेद से दो प्रकार का है" अर्थशक्त्युत्थध्वनि - (1) स्वतः सम्भवी (2) कवि प्रौढोक्ति (3) कवि निबद्ध वक्त्रि प्रौढोक्ति इन तीन प्रकार के भेद से वस्तु से वस्तु ध्वनि अलंकार से अलंकार ध्वनि, वस्तु से अलंकार ध्वनि एवं अलंकार से वस्तु ध्वनि के भेद से 12 प्रकार का वर्णन किया गया . है । परन्तु पं. राज जगन्नाथ कवि निबद्ध वकिन प्रौढोक्ति को कवि प्रौढोक्ति के भीतर ही मानकर इस भेद को अलग से नहीं मानते हैं । इसके अतिरिक्त यह 12 प्रकार का अर्थशक्त्युत्थध्वनि भी प्रबन्धगत भी होता है । आचार्य मम्मट ने लिखा है - "प्रबन्धोऽप्यर्थ शक्तिभूः172 शब्दार्थोमय शक्त्युत्थ ध्वनि केवल एक ही प्रकार का होता है शेष ध्वनि पदगत और वाक्यगत दोनों में होते हैं । इस प्रकार ध्वनि के 35 भेद बन जाते हैं । सम्पूर्ण को पदगत वाक्यगत करने से तथा शब्दार्थोमयशक्त्युत्थ को जोड़ देने से ध्वनि के सामान्यतः 51 भेद हो जाते हैं । इनमें भी नीर-क्षीर न्याय होने से और कहीं तिल-तण्डुल न्याय (संसृष्टि) रूप में मिलने से ध्वनि के बहुल भेद निष्पन्न हो जाते हैं । (साहित्यदर्पणकार ध्वनि के योग को 5304 और शुद्ध 51 भेद को जोड़ देने से 5355 ध्वनि भेद माने हैं) जिसका विवरण यहाँ विस्तृत कलेवर होने के कारण नहीं किया जा रहा है । इसके अतिरिक्त जहाँ ध्वनि की प्रधानता नहीं होती किन्तु अप्रधान हो जाता है वहाँ गुणीभूत व्यङ्गय होता है । इस गुणीभूत व्यङ्गय के भी आठ भेद बताये गये हैं । इस प्रकार ध्वनि का परिवार विशाल एवं अनन्त है । जयोदय महाकाव्य में ध्वनि विवेचन वस्तु ध्वनिः वस्तु ध्वनि के लिए एक उदाहरण पर दृष्टिपात कीजिए - "हृदये जयस्य विमले प्रतिष्ठिता चानुबिम्बिता माला । मग्नामग्नतयाभात् स्मरशरसन्ततिरिव विशाला ॥77 यहाँ सुलोचना द्वारा पहनाये गये माला जो जयकुमार के निर्मल वक्षस्थल पर प्रतिष्ठित एवं प्रतिबिम्बित हुई । निर्मल वस्तु में प्रतिबिम्ब का पड़ना स्वाभाविक होता है । यहाँ जय
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy