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________________ पंचम अध्याय / 125 34. उदात्त : जहाँ पर लोकोत्तर धन समृद्धि आदि का वर्णन किया जाय उसे उदात्तालङ्कार कहते हैं तथा वर्णनीय वस्तु का जो सम्पादक हो वह भी उदात्त ही होता है । इस प्रकार अलौकिक सम्पत्ति वर्णन और प्रकृत वर्णनीय सम्पादक के भेद से दो प्रकार का यह अलङ्कार बन जाता है146 । उदात्त का अक्षरार्थ है कि उत् कर्षेण आदीयते गृह्यत इत्युदात्तम्' उत् आङ् पूर्वक (दु दान दाने) दानार्थक दा धातु से कर्म में 'क्त' प्रत्यय करके 'अव उपसर्गात्तः' 7/4/47 इस पाणिनि सूत्र से तकरादेश करके निष्पन्न होता है । सुलोचना के सौन्दर्य वैभव के प्रसङ्ग में इस प्रकार दिखाया गया है - "सुतनुः समभाच्छ्यिाश्रिता मृदुना प्रोच्छनकेन मार्जिताः । कनक प्रतिमेव साऽशिताप्यनुशाणोत्कषणप्रकाशिता ॥147 वह सुन्दरी सुलोचना स्नानान्तर कोमल तौलिये से पोंछी गयी, जिससे उसका सौन्दर्य सान पर चढ़ायी गयी स्वर्ण की प्रतिमा की भाँति और निखर उठी । यहाँ सुलोचना का सौन्दर्य वैभव पहले ही से दिव्य था । परन्तु स्नान के पश्चात् तौली के सम्पर्क से और स्वर्ण प्रतिमा के चाक चिक्य के भाँति अतिरम्य बताया गया है । अतएव उदात्त अलङ्कार है । यद्यपि इसके मूल में उपमालङ्कार भी बैठा हुआ है तथापि वह अङ्ग है, अङ्गी उदात्त अलङ्कार ही है । 35. संसृष्टि : जहाँ दो अथवा अनेक अलङ्कारों का परस्पर उपकार्योंयकारक भाव शून्य एक गद्य या पद्य में 'तिलतण्डुल' न्याय से वर्णन हो वहाँ संसृष्टि नामक अलङ्कार होता है । यह कहीं शब्दालङ्कार मात्र में, कहीं अर्थालङ्कार मात्र में और कहीं शब्दार्थोभयालङ्कार में परस्पर निरपेक्षतावश स्थित होने से तीन प्रकार का माना गया है । प्रकृत महाकाव्य के उदाहरण अवलोकनीय हैं"पिप्पलकुपलकुलौ मृदुलाणी विलसत एतौ सुदृशः पाणी ।। सहजस्नेहवशादिह साक्षाद्वलयच्छलतः प्रमिलति लाक्षा ॥149 सुलोचना को सुसज्जनावसर में लाक्षा की चूड़ी पहनाये गये, सुलोचना के दोनों कर पिपल के कोपल के समान कोमल थे और लाक्षा पिपल से उत्पन्न होती है । अतः सहज स्नेह के कारण मानो वह लाक्षा चूड़ी रूप में आकर मिल गयी । ___ इस पद्य में स्वाभाविक स्नेह वश लाक्षा हाथ में मिलने का वर्णन कर उत्प्रेक्षा व्यक्त की गयी है । एवं छल शब्द के प्रयोग से कैतवापह्नति भी व्यक्त होती है । 'मृदुलाणी' 'पाणि' पदो में आणी' यह एकाकार स्वर व्यंजन का पदान्त में प्रयोग होने से अन्त्यानुप्रास भी है। इन सबों का परस्पर निरपेक्षता होने के कारण यहाँ संसृष्टि अलङ्कार है । ऐसे ही त्रयोदश सर्ग से प्रस्तुत उदाहरण में यह अलङ्कार मनोरम है "नगरी च वरीयसो विनिर्गमभेरीविवरस्य दम्भतः । - भवतो भवतो वियोगतः खलु दूनेव तदाऽऽशु चुक्षुभे ॥150.
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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