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________________ पंचम अध्याय / 105 यहाँ भी पृथ्वी की धूल ऊपर को उठी इस ब्याज से अपह्नति अलङ्कार व्यक्त किया गया है। 9. उत्प्रेक्षा : महाकाव्य में उत्प्रेक्षालङ्कार भी अपना व्यापक स्थान रखता है । आचार्य मम्मट का मत है कि उपमेय को उपमान के साथ एकरूपता की सम्भावना (अर्थात् उत्कटैक कोटिक सन्देह) उत्प्रेक्षा अलङ्कार है । उत्प्रेक्षालङ्कार के सम्बन्ध में आचार्य विश्वनाथ ने अपना मत प्रकट किया है कि जहाँ पर प्रकृत अर्थात् वर्णनीय उपमेय का सादृश्य वश असम्भवनीय वस्तु का तादात्म्य कर सम्भावना की जाती है, उसे उत्प्रेक्षा कहते हैं। इसके मन्ये संके, ध्रुवं, प्राय, नुनं, इव आदि शब्द वाचक होते हैं । इस प्रकार वाच्या और प्रतीयमाना के भेद से उत्प्रेक्षा दो प्रकार की होती है। जहाँ मन्ये आदि का प्रयोग होता है, वहाँ वाच्योत्प्रेक्षा होती है तथा जहाँ इनका प्रयोग नहीं होता है वहाँ प्रतीयमाना उत्प्रेक्षा कही गयी है । ये दोनों प्रकार की उत्प्रेक्षाएँ जाति, गुण, क्रिया, द्रव्य की उत्प्रेक्षा होने से आठ प्रकार की बतायी गयी है । इसके अतिरिक्त भावाभाव के भेद से उत्प्रेक्षा दो प्रकार की कही गयी है । पुनः इस सोलह प्रकार की उत्प्रेक्षा में भी उत्प्रेक्षा का कारण कहीं गुण स्वरूप और कहीं क्रिया स्वरूप होने से बत्तीस प्रकार की उत्प्रेक्षा निष्पन्न होती है । अधोलिखित श्लोक में उत्प्रेक्षागत चमत्कार अवलोकनीय है - "अप्राणकैः प्राणभृतां प्रतीकैरमानि चाजिःप्रतता सतीकै : ।। अभीष्टसम्वारवती विशालाऽसौ विश्वसृष्ट खलु शिल्पशाला ॥''66 जिसका अर्थ है कि वह युद्धभूमि योद्धाओं के कटे हुए निर्गत प्राण, कर, चरण, मस्तकादि अङ्गों से भर गयी । जिससे लोगों ने समझा कि विश्व निर्माता की अभीष्ट सामग्रियों से भरी हुई यह विशाल शिल्पशाला है । छिन्न-भिन्न अङ्गों से भरी हुई युद्धभूमि को विशाल शिल्पशाला की सम्भावना की गयी है । 'खलु' शब्द का प्रयोग होने से यह वाच्योत्प्रेक्षा है । इसी प्रकार आगे के श्लोक में भी यह अलङ्कार अपना आधिपत्य जमाए हुए है. "प्रणष्टदण्डानि सितातपत्रच्छत्राणि रेजुः पतितानि तत्र । सम्भोजनायोजनभाजनानि परे तराजेव विनियोजितानि ॥''67 प्रकृत पद्य में यह कहा गया है कि दण्ड से ही श्वेत छत्र जो युद्धभूमि पर गिरे हुए हैं, उन्हें देखकर यह प्रतीत होता है कि यमराज ने समष्टि भोजन हेतु श्वेत पात्रों का आयोजन किया है । दण्ड ही छत्रों की श्वेत भोजन पात्र की सम्भावना करने से उत्प्रेक्षा है । उत्प्रेक्षा वाचक शब्दों का प्रयोग होने से प्रतीयमानोत्प्रेक्षा है । इसी प्रकार बहुशः स्थलों में इसका प्रयोग रम्य ढंग से किया गया है । 10. अतिशयोक्ति : इस माहाकाव्य में अतिशयोक्ति अलङ्कार भी व्यापक स्थान रखता है । साहित्य दर्पण के अनुसार जहाँ विषय (उपमेय) को निगीर्ण कर विषयी (उपमान) के
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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