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________________ 78/जयोदय महाकाव्य का समाक्षात्मक मन मेरा पुरुषार्थ व्यर्थ नहीं है । क्योंकि जो पाता चाहते हैं वे सतत कपट भाव कर विरोध करते हैं । वही मैं कर रहा हूँ । यथा "नो सुलोचनया नोऽर्थो व्यर्थ मेव न पौरुषम् । द्वयर्थभावविरोधार्थं कर्म शर्मवतां मतम् ॥4॥ यहाँ जय आलम्बन विभाव, साधारण नृपतियों को जीत लेने का कुल वृत्तान्त उद्दीपन विभाव है । प्रतिकार के लिये उद्यत होना (आक्षेप) अनुभाव है । जीत लेने मात्र से विजय, विजय नहीं हो सकती यह कथन ईर्ष्यापूर्ण व्यभिचारी भाव है । क्रोध स्थायी भाव होने से रौद्ररस निष्पन्न होता है। जय हमारे तुलना में नहीं आ सकता यह गर्व रौद्र को पुष्ट करता है। वीर रस - __ प्रकृत महाकाव्य वीर रस से ओतप्रोत है । वीर रस के प्रयोग में सिद्धहस्त कवि की पंक्ति प्रस्तुत है - "समुद्ययौ संगजगं गजस्थः पत्तिः पदातिं रथिनं रथस्थः । अश्वस्थितोऽश्वाधिगतं समिद्धं तुल्यप्रतिद्वन्द्वि बभूव युद्धम् ॥''50 अर्थात् उस युद्ध में गजाधिप के साथ गजाधिप, पदाति के साथ पदाति, रथारूढ़ के साथ रथारूढ़ और घुड़सवार के साथ घुड़सवार जूझ पड़े । इस तरह अपने-अपने समान प्रतिस्पर्धी के साथ भयंकर युद्ध हुआ । ___यहाँ पर सुलोचना स्वयंवर आलम्बन विभाव है । युद्ध में गजारोही, अश्वारोही, रथी एवं पदाति का पारस्परिक निदर्शन उद्दीपन विभाव है । तुल्य प्रतिद्वन्दिता के साथ युद्ध, शस्त्रास्त्रों की ध्वनि और युद्धार्थ उद्यत होना यानी प्रस्थान करना अनुभाव है एवं आक्षिप्त क्रोध व्यभिचारी भाव है । इस प्रकार उत्साह स्थायी भाव की पुष्टि होने से वीर रस निष्पन्न होता है । इसी प्रकार अन्य स्थलों में भी इसका रम्य प्रयोग हुआ है । जैसे उस युद्ध में क्रुद्ध किसी भयंकर मदमस्त हाथी ने किसी एक प्यादे का एक पैर अपने पैर के नीचे दबाकर दूसरा पैर टूंड़ में पकड़ लकड़ी की तरह चीर दिया । 'दूसरी किसी हाथी ने अपने बहुत लम्बे दाँतों द्वारा उस जघन्य हाथी को वेग के साथ उठाकर दाँतों के मध्य पकड़ लिया । मानो ऐसा प्रतीत हो रहा था कि किसी पर्वत के शिखर पर मेघ ही आकर बैठा हो । इन आशयों का रम्य रूप अवधेयार्थ है - "जङ्गामथाक्रम्य पदेन दानधरस्तदन्यां तरसा ददानः ।। विदारयामास करेण पत्तिं सुदारुणो दारुवदेव दन्ती ॥ उत्क्षिप्य वेगेन तु तं जघन्यद्विपं रदाभ्यामपि दन्तुरोऽन्यः ।
SR No.006171
Book TitleJayoday Mahakavya Ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailash Pandey
PublisherGyansagar Vagarth Vimarsh Kendra
Publication Year1996
Total Pages270
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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