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________________ (22) कुपात्र नहीं है। यह बात निर्विवाद है। चतुर्थ गुण स्थान वाला अविरत सम्यग् दृष्टि कुपात्र नहीं कहा जा सकता। क्योंकि वह भी सम्यग्दर्शन रूपी (श्रद्धा) रत्न का पात्र है। जो रत्न का पात्र है वह कुपात्र कैसे हो सकता है। शास्त्रकार ने सम्यग्दर्शन की प्रशंसा करते हुए यह स्वीकार किया है कि श्रद्धा को प्राप्त करना बड़ा ही कठिन है। वह जिसको प्राप्त हो जाती है वह मनुष्य कल्याण मार्ग का पथिक हो जाता है। उसे कुपात्र कहना तो शास्त्रकार के कथन को तिलांजलि देना है। देखिये.! उत्तराध्ययन के तीसरे अध्ययन में सम्यग्दर्शन की दुर्लभता के विषय में यह गाथा लिखी है “आहच्च सवणं लधुं सद्धा परम दुल्लहा" अर्थात् शास्त्रों का श्रवण तो कदाचित् हो भी जाय, परन्तु उसमें श्रद्धा होना बहुत ही कठिन है। यहां शास्त्रकार श्रद्धा को परम दुर्लभ बता कर उसको एक बहुत ही उत्तम पदार्थ मानते हैं। क्योंकि यहीं से कल्याण मार्ग पर आने का आरम्भ होता है। अथवा यों कहिये कि यही कल्याणरूपी आनन्दभवन की नींव है। वह जिस व्यक्ति में मौजूद है वह कुपात्र या अयोग्य नहीं कहा जा सकता। जबकि चतुर्थ गुणस्थान वाला सम्यग्दृष्टि भी सम्यग्दर्शन रूपी गुण का पात्र होने से कुपात्र नहीं है। तो फिर पंचम गुण स्थान वाला श्रावक, जिसमें सम्यग्ज्ञान दर्शन और चारित्र तीनों ही विद्यमान हैं वह कुपात्र, पापी या अधार्मिक आदि कैसे, कहा जा सकता है। तथापि जिस मनुष्या में स्वार्थ की वासना अति मात्रा में हो जाती है। जो मत पक्ष के आग्रह म
SR No.006168
Book TitleSupatra Kupatra Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbikadutta Oza
PublisherAadinath Jain S M Sangh
Publication Year
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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