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________________ (16) है। ऐसी हालत में श्रावक को मिथ्यात्व की क्रिया भी होनी चाहिये। परन्तु आप भी श्रावक में मिथ्यात्व की क्रिया नहीं मानते हैं। तो उसमें अविरत की क्रिया भी नहीं माननी चाहिये। यही बात न्यायसंगत प्रतीत होती है। श्रावक जिन पदार्थो से विरत नहीं है किन्तु उनकी ममता जिनमें विद्यमान है उन पदार्थो के कारण उसको पारिग्रहिकी क्रिया लगती है यह शास्त्र में स्पष्ट उल्लेख है। यदि उसे भी आप अविरत की क्रिया के अन्तर्गत मान लें तो फिर पारिग्रहिकी क्रिया का अवकाश ही श्रावक में नहीं रहता। यह आप को सूक्ष्म दृष्टि से विचारना चाहिये। ___ भ्रमविघ्वंसन पृष्ठ 82 में जीतमलजी लिखते हैं कि - “छः कायना शस्त्र ते कुपात्र छे” अर्थात् जो छ:, काय के जीवों का घात करता है, वह कुपात्र है। जीतमलजी कुपात्र का यह लक्षण बतलाते हैं और श्रावक छ: काय के जीवों का घात करता है इसलिये उसको कुपात्र कायम करते हैं। परन्तु जीतमलजी को यह समझ लेना चाहिये था कि प्रमादी साधु भी भगवती शतक 1 उद्देशा 1 में छः काया का आरंभी होने से घातक बतलाया गया है। इसलिए छ:काया का घातक यदि कुपात्र है तो फिर साधु भी कुपात्र ठहरता है। उसको वे सुपात्र कैसे कहते हैं? देखिये भगवती का वह पाठ यह है"तत्थ णं जे ते पमत्त संजया ते सुहजोगं पडुच्च णो आयारम्भा णो परारम्भा णो तदुभयारम्भा अणारंभा चेव। असुहजोगं पडुच्च । आयारम्भावि परारम्भावि तदुभयारंभावि णो अणारम्भा।" भगवती शतक 1 उ. 1
SR No.006168
Book TitleSupatra Kupatra Charcha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmbikadutta Oza
PublisherAadinath Jain S M Sangh
Publication Year
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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