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________________ नेमिनाथमहाकाव्य : कीतिराज उपाध्याय पति बनेगा। प्रभात वर्णन नामक इस सर्ग के शेषांश में प्रभात का मार्मिक वर्णन है । तृतीय सर्ग में ज्योतिषी उक्त स्वप्नफल की पुष्टि करते हैं। समय पर शिवा ने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। चतुर्थ सर्ग में दिक्कुमारियां नवजात शिशु का सूतिकर्म करती हैं । पंचम सर्ग में इन्द्र शिशु को जन्माभिषेक के लिए मेरु पर्वत पर ले जाता है । इस प्रसंग में मेरु का प्रौढ़ वर्णन किया गया है। छठे सर्ग में शिशु के स्नात्रोत्सव का अनुष्ठान किया जाता है। सातवें सर्ग में चेटियों से पुत्र-जन्म का समाचार पाकर समुद्रविजय आनन्दविभोर हो जाता है। शिशु का नाम अरिष्टनेमि रखा गया। आठवें सर्ग में अरिष्टनेमि के शारीरिक सौन्दर्य एवं शक्तिमत्ता का तथा परम्परागत छह ऋतुओं का हृदयग्राही वर्णन है । एक दिन नेमिनाथ ने पांचजन्य को कौतुकवश इस वेग से फूका कि तीनों लोक भय से कम्पित हो गये । नवें सर्ग में नेमिनाथ के मातापिता के आग्रह से श्रीकृष्ण की पत्नियां नाना युक्तियां देकर उन्हें वैवाहिक जीवन में प्रवृत्त करने का प्रयास करती हैं । मोक्ष का लक्ष्य सुख-प्राप्ति है, किन्तु यदि वह विषयों के भोग से ही मिल जाये, तो कष्टदायक तप की क्या आवश्यकता ? नेमिनाथ उनकी युक्तियों का दृढतापूर्वक खण्डन करते हैं । उनके लिए मोक्ष-जन्य आनन्द तथा विषय-सुख में उतना ही अन्तर है जितना गाय तथा स्नुही के दूध में । किन्तु मातापिता के अत्यधिक आग्रह से वे, केवल उनकी इच्छापूर्ति के लिए, गार्हस्थ्य जीवन में प्रवेश करना स्वीकार कर लेते हैं। उग्रसेन की लावण्यवती पुत्री राजीमती के साथ उनका विवाह निश्चित होता है । दशवें सर्ग में नेमिनाथ वधूगृह को प्रस्थान करते हैं । यहीं उन्हें देखने को लालायित पुरसुन्दरियों के सम्भ्रम तथा तज्जन्य चेष्टाओं का रोचक वर्णन है। वधूगृह में बारात के भोजन के लिए बंधे हुए, मरणासन्न निरीह पशुओं का चीत्कार सुनकर, उन्हें आत्मग्लानि होती है, और वे विवाह को बीच में ही छोड़कर दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। ग्यारहवें सर्ग के पूर्वार्द्ध में अप्रत्याशित प्रत्याख्यान से अपमानित राजीमती का करुण विलाप है । मोह-संयम-युद्ध-वर्णन नामक इस सर्ग के उत्तरार्द्ध मे मोह और संयम के प्रतीकात्मक युद्ध का अतीव रोचक वर्णन है । पराजित होकर मोह नेमिनाथ के हृदय-दुर्ग को छोड़ देता है जिससे उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। बारहवें सर्ग में श्रीकृष्ण आदि यादव केवलज्ञानी प्रभु की वन्दना के लिये उज्जयन्त पर्वत पर जाते हैं। जिनेश्वर की देशना के प्रभाव से उनमें से कुछ दीक्षा ग्रहण करते हैं और कुछ श्रावक धर्म स्वीकार करते हैं। जिनेन्द्र राजीमती को चरित्र-रथ पर बैठाकर मोक्षपुरी भेज देते हैं और कुछ समय पश्चात् अपनी प्राणप्रिया से मिलने के लिए स्वयं भी परम पद को प्रस्थान करते हैं। कथानक के निर्वाह की दृष्टि से नेमिनाथमहाकाव्य को निर्दोष नहीं कहा जा सकता । कीतिराज का कथानक अत्यल्प है, किन्तु कवि ने उसे विविध वस्तु-वर्णनों,
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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