SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ काव्यमण्डन : मण्डन ७१ के मन्दिर में प्रवेश करते समय दनुजराज किर्मीर को छींक आई थी जिसके फलस्वरूप भीम ने उसे गदा से चूर-चूर कर दिया" । आजकल की भांति उस समय भी गीदड़, उल्लू आदि का शब्द विपत्तिजनक माना जाता था। कृष्णमृग का बाईं ओर से गुजरना, गीदड़ की फेंकार, उल्लू का दाईं ओर शब्द करना भयावह था। सूर्य के परिवेश का प्रकट होना भी अशुभ था। वन से लौटते समय भीम के समक्ष ये सभी अपशकुन उपस्थित हुए थे, जो उसके भाइयों की विपत्ति के पूर्वसूचक थे। समाज में एक अन्य विश्वास यह था कि चारपाई पर मरने वाले व्यक्ति की मुक्ति नहीं होती। पवित्र नदी में स्नान मोक्षदायक माना जाता था ।" ____ काव्य में वध्य पुरुष की भूषा के वर्णन से संकेत मिलता हैं कि तत्कालीन समाज में प्राणदण्ड का प्रचलन था। दण्डित पुरुष को लाल माला पहना कर और सिन्दूर से उसका सिर रंग कर वध्य स्थल पर ले जाया जाता था। वह मह झुका कर चलता था और दर्शक उनकी खिल्ली उड़ाया करते थे। प्राणदण्ड का दूसरा ध्रुव आत्महत्या है । आत्महत्या उद्देश्य में असफल होकर अथवा जीवन से निराश होकर की जाती थी । भीम अपने भाइयों को खोजने में असफल होकर तथा कुन्ती अपने पुत्रों के सम्भावित वध के दुःख को न सह सकने के कारण चिता में जल कर मरने को तैयार हो गये थे। गिरिपतन तथा प्रयाग में शरीर-दाह आत्महत्या के अन्य प्रकार थे । कभी-कभी अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति के लिये भी लोग आत्महत्या कर लेते थे । स्वयम्वर में उपस्थित कतिपय राजा द्रौपदी के लिये प्राण देने को उद्यत थे। अभीष्ट सिद्धि के लिये यज्ञ-होम तथा इष्ट देव की आराधना की जाती थी। अथर्ववेद के मन्त्रों से यज्ञ करने तथा महाभिचार होम का काव्य में उल्लेख हुआ है। वर्णाश्रम प्रणाली भारतीय समाज-व्यवस्था की निजी विशेषता है, किंतु जैन कवियों में इस का समर्थन करने वाला कदाचित मण्डन ही एकमात्र कवि है। लाक्षागृह में पाण्डवों के सम्भावित दहन पर विलाप करते हुए प्रजाजन चिन्तित थे ३६. तमवधीतिकर्मीरमम्बासुरम् । वही, ७.३८ ४०. वही, ६.३२-३४ ४१. मंचकमृतोऽपि पातको मुच्यते । वही, ८.२२ ४२. गलरक्तमालाः । सिन्दूरशोणितशिरसस्त्रपया नतास्या, हास्याश्रयाः परिवृताः पुरलोकसंधैः ॥ वही, ७.३. ४३. वही, ६.३६, ७.२१-२२ ४४. वही, ११. १७-१८
SR No.006165
Book TitleJain Sanskrit Mahakavya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyavrat
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1989
Total Pages510
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy